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कब आवे बह शुभ दिवस जिस दिन होवे मुझ | पर पदार्थ को मिन्न लख, होवे अपनी युझ ॥ २६ % % A RE
श्रीपाल रास दोनों राजकुमारियाँ महाराज प्रजापाल के पास बैठी थीं। इस समय शंखपुरी के राजकुमार अरिदमन वहाँ आ पहुँचे । युवक का गौर वर्ण, गठीला बदन, चमकीली आंखें, सुन्दर दन्त पंक्ति, चौड़ा भाल, नौकदार नाक, विशाल वक्षस्थल, लम्बी भुजाएं. मुस्कराता मुख देख सुरसुन्दरी अपने मन पर संयम न रख सकी, राजकुमार भी युवती के रूप सौन्दर्य को देख अपने आपको भूल गया। दोनों के हावभाव देख महाराज प्रजापाल ने अरिदमन को तिलक कर सुग्मुन्दरी ब्याह दी।
कविवर-विनय विजयजी कहते हैं कि श्रीपाल रास प्रथम खण्ड की यह दूसरी हाल सम्पूर्ण हुई। श्रीनागण और पाठकों के घर, सदा आनन्द मंगल हो ।
दोहा मयणा मस्तक धूणती, जब निरखी नाय । पूछे पुत्री वात ए, तुम मन किम न सुहाय ? ॥१॥ सकल सभा थी सो गुणी, चतुगइ चितमाह । दीसे छे ते दाखवो, आणी अंग उत्साह ॥२॥ उचित नहीं इहां बोलवू. मयणा कहे महाराज । मोहे मन माणस तणा, विमआ विषय कषाय ॥३॥ निर्विवक नरपति जिहां, अंश नहीं उपयोग । सभा लोक सहु हांनिया, सरिखी मल्यो मंयोग ॥४॥
मयणासुन्दरी को अपनी बड़ी यहिन और पिताश्री का व्यवहार ठोक न लगा । संयमी जीवन आर्य संस्कृति का आदर्श है।
कौन वस्तु है खरी, और कौन खोटी है यहाँ । ये परखने की किसी को, ज्ञान शक्ति है कहाँ।
मयणासुन्दरी की मुखमुद्रा देख प्रजापाल ने कहा क्या मयगा ! तू अपने आपको बड़ी बुद्धिमान समझती है ? दूसरे लोग भी कुछ समझते हैं या नहीं ? कहो क्या बात है? मयणामुन्दरी पिताश्री ! धृष्टता के लिए क्षमा करें । यड़ों के सामने बोलना उचित नहीं ।