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________________ -- आत्मा ही तरणी नदी है, आत्मा कूटशाल्मली वृक्ष है, आत्मा कामचेतु है, तथा आत्मा ही नंदनवन है । हिन्दी अनुवाद सहित - ३०१ मार्दव धर्मः - चित्त में कोमलता और व्यवहार में नम्रता होना मार्दव धर्म है । इस की साधना विनय से होती है। धर्म की जड़ भी तो विनय ही है। मार्दव-धर्म की सिद्धि के लिये जाति, कुल, धन, वैभव, सत्ता चल, बुद्धि, श्रुत-अध्ययन और अपने तपो-चल के अभिमान का त्याग करना अति आवश्यक है । ३ आर्जव धर्म :- कुटिलता का त्याग । अपने विचार, वाणी और व्यवहार की एकता होने पर ही इस की साधना होती है। आर्जव धर्म, समाज में पारस्परिक विश्वास के लिये जितना तो आप दूसरे को दोष न दें। उसका उपकार मानो कि वह आपको आगे के लिये बड़ा सावधान कर रहा है। सेकड़ो पूर्व के तप जप और सयम को साधना क्षण में नष्ट हो जाती है । मान लो यदि आप सचमुच निर्दोष हैं। यदि फिर भी सामनेवाला व्यक्ति अपने कोचो स्वभावत्रश अज्ञानता से आप पर क्रोध कर बैठता है तो आप उस पर लक्ष्य न देकर शांत भाव से रहें । इसे कोष के निमित्त होने या न होने का चितन कहते हैं । (२) जिसे क्रोध आता है वह स्मृतिभ्रंश होने से आवेश में आकर दूसरों के साथ शत्रुता बांधता है, फिर उनको मारता या हानि पहुँचाता है, और ऐसा करने से अपने अहिंसा व्रतका मंग करता है, इत्यादि अनर्थ परंपरा का जो चिलन है। इसे क्रोध वृत्ति के दोषों का चितन कहते हैं । (३) कोई अपनी पीठ पीछे कड़वा कहे बुराई करे तो ऐसा चितन करना कि बेसकझ लोगों का कु-स्वभाव नहीं मिटता, इसमें अप्रसन्नता की बात हो क्या है ? उलटा लाभ है, जो बेचारा सामने न आकर पीठ पीछे बोलता है । यदि कोई प्रत्यक्ष सामने आकर भद्दं शब्दों की बोछार करे तो उस समय अपने कान से बहरे बनकर मन में सोचना कि मूर्खों का यही स्वभाव है। यदि मुखं अपनी मूर्खताका त्याग न करे तो सज्जन "मैं" अपनी सज्जनता क्यों छोड़ने लगा ? देता तो गाली ही है, कोई प्रहार तो नहीं करता । इसी प्रकार यदि कोई प्रहार करे तो अपने प्राण मुक्त न करने के बदले में उसका उपकार मानना और यदि कोइ प्राण से मुक्त करे तो धर्मभ्रष्ट न करने के कारण लाभ मान कर उसकी दया का चिंतन करना इस प्रकार जितनी अधिक कठिनाईयां उपस्थित हों उतनी ही विशेष उदारता और विवेकबुद्धि से कड़ी समस्याओं को सरल बना देना । इसे बाल स्वभाव का कितन कहते हैं । ( ४ ) कोई अकारण ही अपने पर क्रोध करे तो उस समय अपने मन में अंश मात्र दुःख क्रोध न लाकर मन में दृढ़ निश्चय करना कि क्रोधी व्यक्ति तो बेचारा निमित्त मात्र है; किन्तु यह प्रसंग तो मेरे पूर्वकृत अशुभ कर्मों का ही तो फल है। इसे कृत कर्मों का फल चिंतन कहते हैं । (५) कोई व्यक्ति आप पर अकारण ही क्रोध कर बैठे उस समय आप सहसा आवेश क्रोध में न आकर अपने में सोचें, चिंतन करें कि " कोष एक ठण्डी बाग है" इसमें अपनी आरमशक्ति का स्वाहा करनेवाले मानव को सिवाय बेचनी अशांति के कुछ भो पल्ले नहीं पड़ता । अतः मुझे अपनो दिव्य आत्मशक्ति का बड़े शांत भाव से सन्मार्ग में हो सदुपयोग करना सर्वश्रेष्ठ है । इसे क्षमा गुण चिंतन करते हैं ।
SR No.090471
Book TitleShripalras aur Hindi Vivechan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNyayavijay
PublisherRajendra Jain Bhuvan Palitana
Publication Year
Total Pages397
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size12 MB
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