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तू अपनो निर्मल आत्मा का ध्यान कर जिसके ध्यान में एक अन्तर्मुहूर्त स्थिर रहने से मुक्ति प्राप्त हो जाती है। हन्दी अनुवाद सहितAHARASHTRA २९९
पइविध बाहिर तप का, अभ्यन्तर पइविध होय रे । कर्म तपावे ते सही, पडिसोअ वृत्ति पण जोय रे । सं. ॥२२॥ दिव्य औदारिक काम जे, कृत कारत अनुमति भेद रे। योग त्रिके तस वर्ज, ते ब्रह्म हरे मति खेद रे । सं. ॥२३॥ अध्यात्म वेदो कहे, मूर्छा ते परिग्रह भाव रे । धर्म अकिंचन ने भण्यो, ते कारण भवजल नाव रे । सं.॥२४॥
तत्पश्चात् नाभि के कमल में बने हुए अक्षर "ई" के रेफ से धुम्र निकलने की कल्पना करनी चाहिये और फिर अग्नि ज्वाला निकलने की। फिर सोचना चाहिये कि अग्निज्वाला क्रमशः वृद्धिगत हो रही है, ऊपर के कमल में स्थित आठ कर्मों को दग्ध कर रही है, फिर वह ज्वाला कमल के मध्य में छेद कर ऊपर मस्तक तक आ पहुँची है, उसकी एक रेखा दाहिनी और दूसरी बाई ओर निकल रही है, फिर नीचे की ओर आ कर दोनों को मिला कर एक अग्निमयी नई रेखा बन गई है। अर्थात ऐसा चितन करें कि अपने शरीर के बहार तीन कोण वाला अग्निमण्डल बन गया है।
तोनों लकीरों में से प्रत्येक में "" अक्षर लिखा हुआ सोचें । तत्पश्चात् त्रिकोण के बहार, तीन कोणों पर अग्निमय स्वस्तिक लिखा हुआ तथा भीतर तीन कोणों में प्रत्येक पर अग्निमय "ॐ अहम्' लिखा हुआ सोचें। फिर ऐसा चितन करना चाहिये कि अग्नि मण्डल, भीतर माठ को को जला रहा है और बहार इस शरीर को भस्म कर रहा है। समस्त कर्म और शरीर जलकर राख हो गए हैं और अग्नि शान्त हो गई है । इस प्रकार चिंतन करना आग्नेयी धारणा है।
बायवी धारणा:--अग्नेयी धारणा का चिंतन करने के पश्चात् साधक को यह धारणा करनी चाहिये । इसका स्वरूप यों है-चारों ओर वेग के साथ वायु बह रही है। मेरे चारों मोर वायु ने गोल मंडल बना लिया है। वह वायु दग्ध हुए कर्मों की तथा शरीर की राख उड़ा रही है और आत्मा को स्वच्छ कर रही है।
वारुणी धारणा:-जल का विचार करना वारुणी धारणा है। वायवी धारणा के अनन्तर इसका चितन इस प्रकार करना चाहिये, गगन मेघमण्डल से व्याप्त हो गया है। बिजली चमक रही है । मेघ गर्जना होने लगी है और मूसलवार वर्षा प्रारम्भ हो गई है । मैं मध्य में स्थित हूँ। मेरे ऊपर अर्ध चन्द्राकार जल-मण्डल है। यह बल पाप-मल का प्रक्षालन कर रहा है। आस्मा निर्मल बनता जा रही है ।
तत्वरूपवती धारणाः-वारुणी धारणा के पश्चात ऐसा चिंतन करना चाहिये । कर्म-मरु हट जाने से मैं शुद्ध, बुद्ध, अशरीर, अकर्मा, ज्योतिपुंज हो गया हूं।
३ रूपस्थ-ध्यानः-संपूर्ण बाह्य और आंतरिक महिमा से सुशोभित श्रीबर्हन्त भगवान का