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आत्मा का पूर्ण प्रत्यक्ष ज्ञान सद्गुरु की सहानुभूति से ही होता है । इस जीवन-समुद्र में ही रत्न है-आत्मज्ञान २९६ HRSHANKARNAAKHIR श्रीपाल रास विचारों को परखने के लिये *आगम प्रमाण, अनुमान प्रमाण एक सही माप दंड है ।
ध्यानः-स्थिर दीपशिखा के समान निश्चल और अन्य विषय के संचार से रहित केवल एक ही विषय के धारावाही प्रशान्त सूक्ष्म बोध को ध्यान कहते हैं, क्यों कि शक्ति का विकास संकल्प की दृढ़ता और तीव्रता में निहित है । ध्यान के अवलम्बन से मानसिक शक्ति की अभिवृद्धि हो जाती है, मग आम एक भन्दा सामर्थ्य प्रकट होता है। अतः धर्माराधन में ध्यान का महत्वपूर्ण स्थान है।
- ध्यान के चार विभाग हैं:-१ आर्तध्यान-शोक, चिन्ता से उत्पन्न वृत्ति प्रवाह । २ रौद्र ध्यान-पाप जनक दुष्ट भावों से उत्पन होनेवाला दुःसंकल्प । ३ धर्मध्यान-आत्म स्वरुप दर्शन की तीव्र इच्छा । ४ शुक्लध्यान शुद्ध-आत्मदर्शन से प्रकट सर्वधा विशुद्ध आत्मवृत्ति ।
ध्यान से मन की चंचलता मंद पड़ने से आत्मार्थी मानव के हृदय में सम्यक्त्व प्राप्ति व उस की विशुद्धि के लिये तत्त्व-बोध जानने की एक भारी उत्कंठा जाग उठती है। पश्चात् वह सद्गुरु व तत्ववोध पाने के लिये सतत प्रयत्नशील रहता है । तत्वयोध के दो भेद हैं। संवेदन तत्त्वयोध और स्पर्श तस्ववोध ।।
(१) संवेदन-तत्त्वबोध का अर्थ है किसी ग्रन्थ या पदार्थ को बिना मनोयोग के स्थूल दृष्टि से दृष्टि-पथ ( नजर ) में निकाल कर उसका मन माना आचरण करना | यह तत्त्वयोध बंध्या के अपने समान निष्फल है। (२) स्पर्श-तत्त्वबोध का अर्थ है, जीव, अजीव, आश्रव, बंध, संवर, निर्जरा, मोक्ष आदि तत्त्वों का बड़ी श्रद्धा और मनोयोग से तल-स्पर्शी (गंभीर ) अध्ययन कर उसका सदा चिंतन-मनन और यथा शक्ति आचरण करना । सचमुच स्पर्श-तत्त्ववोध ही तो आत्म कल्याण का मार्ग है। इसके उपभेद दस प्रकार के यतिधर्म क्षमा, मार्दव, आर्जब, शौच, सत्य, संयम, तप, त्याग, अकिंचनता और ब्रह्मचर्य है। इसशी विशेषता है, "अहिंसा परमो धर्मः"।
* आगम प्रमाण-शास्त्रों की साक्षी से जो बात जानी जाती है। जैसे नरक, निगोद, देवलोक आदि । अनुमान प्रमाण-किसी चिह्न विशेष को देख कर वस्तु का ज्ञान हो, जसे कि धुए को देख कर अग्नि का बोध होना ।
___आर्त ध्यानः-अरति, शोक, संताप और चिन्ता हमारे मन पर छा जाती है, उसके प्रमुख चार कारण हैं।
इसके चार भेद ( पाये ) हैं:-- १ अमंगल समय और विपरीत वस्तुओं के संयोग से व्याकुल जीवात्मा अपने अनेक कष्टों से छुटकारा पाने का ही सदा संकल्प-विकल्प चिन्ता किया करते हैं। इसे अनिष्ट संयोग पहला आर्त ध्यान कहते हैं । २ व्यापार-धन्धे में हानि, आग, पानी और चोरी