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कोयल दिव्य ओम्रास पीकर भी गर्व नहीं करती, लेकिन मेंढक कीचड़ का पानी पी कर भी टर्राने लाता है। २९. H ARRIA*29*-** श्रीपाल रास
गुरु सेवा पुण्ये लही, पासे पण बेठा मित्त रे।। धर्म श्रवण ता हे दोहिलं, निद्रादिक दिये जो मित्त रे, नि.सं.॥८॥ पामी श्रुत पण दुल्लही, तत्वबुद्धि ते नरने न होय रे ।
शृंगारादि कथा रसे, श्रोता पण निज गुण खोय रे, श्रो. सं. ॥९॥ श्री जिनेन्द्र भगवान का सिद्धान्त है कि संभव है वह साधु फिर दुबारा स्वप्न में पूनम के चन्द्र को देख सकता है किन्तु जो व्यक्ति प्रभाद-वश व्यर्थ हो अपना अनमोल समय खो देते हैं, उन को पुन: मनुष्यभव हाथ लगना बड़ा ही दुर्लभ है ।
दृष्टान्त साताः -मथुरा के सम्राट जिनशत्रु की दृढ़ प्रतिज्ञा थी कि मैं अपनी राजकुमारो उसी राजकुमार को दंगा जो कि राधावेध में सफल होगा । दूर-दूर से हजारों-लाखों राजकुमारों ने आकर तेल से भरे कड़ाव की ओर झांककर कड़ाव के निकट एक स्तभ पर आठ २त्रों के मध्य में बड़े वेग से घूमती-फिरती राधा-लकड़ो की पुतली को आंख को काली कोकी को छेदना चाहा किन्तु उस राधावेश कला में किसो एक भी राजकुमार को सफलता न मिली। श्री जिनेन्द्र भगवान का सिद्धान्त है कि जो व्यक्ति प्रमाद- वशव्यर्थ हो अपना अनमोल समय नष्ट कर देते हैं। उनको पुनः मनुष्यभव हाथ लगना बड़ा ही दुर्लभ है ।।
दृष्टान्त आठवां:--एक कछुआ एक दिन शरद् पुनम के दर्शन कर आनन्द विभोर हो गया। वह अपने परिवार को भी शरद-चंद्र के दर्शन कराना चाहता था। अत: उसने सागर के तल में गोता मारा और अपने परिवार को ले कर उपर लाया तो संयोग वश हवा के झोकों से जल में चारों मोर कंजी ही कंजी छा गई। अब शरद पूनम के दर्शन करना उसके हाथ को बात नहीं सैकड़ों वर्षों में न मालम कब ऐसा सुयोग हाथ लगे। श्री जिनेन्द्र भगवान का सिद्धान्त है कि विशेष प्रयत्न करने पर संभव है कछपा अपने परिवार को शरद पूनम के दर्शन करा भी दे किन्तु जो व्यक्ति प्रमाद-वश व्यर्थ ही अपना अनमोल समय खो देता है, उसे पुन: मानवभव मिलना बड़ा ही दुर्लभ है।
दृष्टान्त नवमांः-एक समुद्र के इस पार गाड़ी का जूड़ा और उस पर समिला (खूटी) रखा था। संयोग वश हवा के जोरदार झोकों से दोनों बहते सागर में गुड़क पड़े । आशा नहीं कि मिला जूड़े के छिद्र में प्रवेश पा सके। श्री जिनेन्द्र भगवान का सिद्धान्त है कि संभव है किसी विशेष प्रयोग से समिला पुनः जूड़े में प्रवेश पा सकता है किन्तु जो व्यक्ति प्रमाद-वश व्यर्थ ही अपना अनमोल समय नष्ट कर देते हैं उन्हें पुनः मनुष्यभव हाथ लगना बड़ा ही दुर्लभ है ।।
पृष्टान्त दशवां:-मेरुपर्वत के ऊंचे शिखर पर चढ़ कर बड़े भारी स्तंम के अणु-अण बनाए, फिर उनको एक नलिका में भर कर हवा से दसों दिशाओं में फूक-फूक कर बिखेर दें। पश्चात् कोई कहे कि इन अणओं का संचय कर पुन: स्तंभ बना दो। क्या स्तंभ बन सकता है ? श्री जिनेन्द्र भगवान का सिद्धान्त है कि संभव है कोई सिख पुरुष बिखरे हुए अणुओं से स्तंभ बना भी दे किन्तु जो व्यक्ति प्रमाद-वश व्यर्थ ही अपना अनमोल समय नष्ट कर देता है, उसे पुनः मनुष्यभव हाथ लगना बड़ा ही दुर्लभ है।