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झूठ बोलने वाले का न मित्र मिलता है, न पुन्य न यश। हिन्यो अनुवाद सहित RE - RS
२८९ महोटे पुण्ये पामिये, जो सद्गुरु संग सुरंग रे । तेर काठिया तो करे, गुरु दर्शन उत्सव भंग रे, गु. संवे.॥६|| दर्शन पामे गुरु तणु, धुर्त व्युद् प्राहित चित्त रे ।
सेवा करी जन नवि शके, होय खोटो भाव अमित्त रे, से सं ॥७॥ आठ काने वाले इन एक सौ आठ स्तंभों को मुझ से बिना हारे जुए में जीत लेगा उसे मैं सहर्ष यह मेरा राज्य दे दंगा । राजकुमार की बुद्धि चकरा गई। वह अपने पिता की बात का कुछ भी उत्तर न दे सका।
श्रा जिनेन्द्र भगवान का सिद्धान्त है कि वह राजकुमार संभव है किसी विशेष साधना के बल से उस राजा को सहज हो जीत सकता है किन्तु जो व्यक्ति आस्म साधना के बिना प्रमादवश व्यर्थ ही अपना समय नष्ट कर देते है उन्हें पुन: मनुष्यभव मिलना बड़ा दुर्लभ है।
दृष्टान्त पांचयाः-एक जन्हीजी परदेश से घर लौटे तब उनको मालूम हुआ कि उनके लड़कों ने उनकी बिना आज्ञा के बहुमूल्य रत्न पानी के भाव दूर देश के व्यापारियों को बेच दिये | उन्होंने बिगड़ कर अपने बेटों को आदेश दिया कि तुम लोग इसी समय जाकर व्यापारियों से मेरे रत्न वापस ले आओ । नहीं तो मैं तुम्हें अपने घर पर न रखने दूंगा।
वेचारे भोले-भाले लड़कों ने व्यापारियों को खोजने के लिये चारों ओर भारी दौड़ धूप की किन्तु उन्हें कहीं भो उन व्यापारियों का पता न लगा। धो जिनेन्द्र भगवान का सिद्धान्त है कि संभव है कि व्यापारियों का पता आज नहीं तो कल लग सकता है किन्तु जो व्यक्ति आत्मसाधन के बिना प्रमाद-वश व्यर्थ हो अपना समय नष्ट कर देते हैं, उन्हें फिर मनुष्य भव हाथ लगना बड़ा ही दुर्लभ है।
दृष्टान्त छदछा:-एक गांव में एक साधु और एक ठाकुर दोनों पास पास रहते थे। एक बार दोनों एक साथ रात्रि के अन्तिम प्रहर में स्वप्न में पूर्ण चन्द्र को निगल गये दोनों की आँख खुली। साधु ने दौड़ कर अपने महन्तजी से कहा-गुरुजी ! आज मैंने सपने में पूर्णमासी के चन्द्र को मह में निगला है। भोजनानन्दी महन्तजी ने कहा-बेटा ! आज तुम को चकाचका तर माल मिलेगा। पांचों अंगुलियों घो में है। सचमुच उसे बस्ति में पैर रखते ही, अड़िया घी में लथ-पथ एक रोटा मिला, उसे देखते ही साधु के मुह से लार टपक पड़ी।
ठाकुर ने महन्त के मुह से स्वप्न का फल सुना तो उसकी बुद्धि चकरा गई। बरे ! ऐसे मांगलिक स्वप्न का बस यही मूल्य ? वह चुपचाप आगे बढ़ा, उसने सविधि एक ज्ञानी गुरु के चरणों को रूपा नाणा से पूजन कर उनसे स्वप्न का फल पूछा । गुरु ने उसके विनय और विनम्र स्वभाव से प्रसन्न होकर कहा । महानुभाव ! आपका अतिशोघ्न भाग्योदय होने वाला है। सचमुच उसका उपाश्रय के बाहर पैर रखना ही था कि एक हस्तिनी ने उस पर राज्याभिषेक कर उसे महा सम्राट के पद पर पहुंचा दिया।
नगर में ठाकूर के स्वप्न लाभ की चर्चा आग, पानी की तरह बहे वेग से चारों बोर फैल गई। साधु साकुर को राज्यसिंहासन पर बैठे देख आश्चर्य चकित हो गया । वह राज्य प्राप्ति की कामना से कई बार सोया और जागा किन्तु उसे दुबारा फिर पूनम का चन्द्र न दिया।