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________________ स्वानुभव से जो प्रेरणा मिलती है वह कहने सुनने से नहीं मिलती। हन्दी अनुवाद सहित २२८७ चौथा खण्ड-सातवीं ढाल (राग हस्तिनाग-पुर वर भलो) प्राणी वाणी जिन तणी तुम्हे धागे चित्त मझार रे । मोह मुंज्या मत फिरो, मोह मुके सुख निस्धार रे ॥ मोह मुके सुख निरधार संवेग गुण पालीये पुण्य वैत रे । पुण्यवंत अनंत विज्ञान, वदे इम केवली भागवंत रे ॥ १ ॥ दश दृष्टान्ते दोहिलो मानव-भव ते पण लद्ध रे। आरय क्षेत्रे जनम जे ते दुर्लभ सकन संबंध रे ।। २ ।। आरय क्षेत्रे जनम हुओ पण, उत्तम कुल ते दुर्लभ रे । व्याधादिक कुले अपनो, शु आरज क्षेत्रे अचभं रे शु. सं. ॥३॥ कुल पामे पण दुल्लहो, रुप आरोग आउ समाज रे।। रोगी रुप-रहित घणा, हीण आउ दीसे छे आज रे, हो. ॥ सं॥ ४ ॥ ते सवि पामे पण सही, दुलहो छे सु-गुरु संयोग रे। सघले क्षेत्रे नही सदा, मुनि पामीजे शुभ योग रे, शु. ॥५|| राजर्षि का प्रवचनः- प्रिय महानुभावो! मोह एक नशा है । मानव इस नशे में अपने विशुद्ध आत्म-स्वरूप को भूल, भौतिक सुखों की मरीचिका के पीछे भटक जाते हैं। किन्तु संसार की प्रत्येक वस्तु के मोह का अंतिम परिणाम सुखद नहीं । संपत्ति का मोह प्रायः हत्या का कारण बन जाता है । सगे-संबंधी वियोग के समय दुःख देते हैं, गगनचुम्बी-भवन भूकंप के समय मसान-घाट से डरावने लगते हैं। भांति भांति के सुख जाकर और दुःख आकर मानवों को रुलाये बिना नहीं चुकते हैं। जीवन मृत्यु दिखा कर और मृत्यु अधिक जीवित रहने की इच्छा जागृत कर स्त्री-पुरुषों के मस्तिष्क को खोखला बना देती है। हर प्रसन्नता का फूल मुझा कर कांटा बन जाता है। वास्तव में श्रीजिनेन्द्र देव की वाणी सत्य है कि मोह के त्यागे बिना सुख-शांति की आशा करना स्वप्न में बने करोड़पति के सुख के समान है। बाहिर न भटको। सुख की खोज अपनी अंतर आत्मा में करो।
SR No.090471
Book TitleShripalras aur Hindi Vivechan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNyayavijay
PublisherRajendra Jain Bhuvan Palitana
Publication Year
Total Pages397
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size12 MB
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