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________________ लोगों से घृणा करना ठीक वैसा हो है, जैसे कि चुहे से घर बचाने के लिये पा को आग लगा देना । २८६ SHERAKSHAR भोपाल रास श्रीमान् उपाध्याय यशोविजयजी महाराज कहते हैं कि यह श्रीपाल-रास के चौथे खण्ड की छट्ठी दाल श्रीसिद्धचक्र महिमा दर्शक अलंकारिक शब्दों में सानंद संपूर्ण हुई । इसे पाठक और श्रोतागण सप्रेम पढ़-सुन कर सम्राट् श्रीपालकुंवर के समान ही अखण्ड सुख-सौभाग्य सु-या और विनयादि सद्गुणों को प्राप्त करें। दोहा एहवे राय ऋद्धि भलो, अजित सेन जसु नाम । ओहिनाण तस उपन्यु, शुद्ध चरण परिणाम ॥१॥ तिण नगरी ते आवियो, सुणी आगम उदंत । रोमांचित श्रीपाल नृप, हर्षित हुओ अत्यंत ॥२॥ वंदन निमित्ते आवियो, जननी भज्ज समेत । मुनि नोमय करिय प्रदिक्षणा, बेठो धर्म-संकेत ॥ ३ ॥ सुणवा वंछे धर्म ते, गुरु सन्मुख सु विनीत । गुरु पण तेहने देशना, दे नय समय अधीत ॥ ४॥ सन्मार्ग दर्शनः-एक दिन सम्राट् श्रीपालकुंबर को एक बागवान ने आकर कहा-महाराज की जय हो !! नाथ! आज बागमें अधिज्ञानी राजर्षि अजितसेन पधारे * मनि का नाम सुन कुंवर आनंदविभोर हो गए, उन्हें रोमांच हो गया। कंवरने बधाई लाने वाले माली को विपुल धन दे उसे निहाल कर दिया। पश्चात कुंवरने अपने प्रधान मंत्री मंडल, प्रतिष्ठित नागरिकों के साथ सपरिवार बड़े ही समारोह के साथ बाग में आये। जनता राजर्षि के विशुद्ध संयम, सुधा-दृष्टि, तपोबल और उनकी शांत मुद्रा देख मुग्ध हो गई। समी ने सम्राट् श्रीपालकुंबर के साथ राजर्षि को वंदन कर उन से सादर प्रार्थना की- गुरुदेव ! हमें कृपया सन्मार्ग दर्शन दें।
SR No.090471
Book TitleShripalras aur Hindi Vivechan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNyayavijay
PublisherRajendra Jain Bhuvan Palitana
Publication Year
Total Pages397
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size12 MB
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