________________
अपने चेहरे पर हर दम प्रसन्नता बनाए रखना, जनता को मोती से भरे था भेट करने के समान है। हन्दी अनुवाद सहित -
*-9ATA-%956 २८५ मेरु मवजे अंगुले रे लाल, कुश अग्रे जलनिधि नीर रे, सो. । फरसे आकाश समीर रे सो. तारागण गणित गंभीर रे, सी. । श्रीपाल सुगुणनो लीट रे, सो. ते पण नवि पामे धीर रे, सो.जय. ॥१६॥ चौथे खंडे पूरी थई रे लाल, ए छट्ठी ढाल अभंग रे, सो. । उक्ति ने युक्ति सुचंग रे, सो, नवपद महिमानो रंग रे, सौ. । लही ये ज्ञान तरंग रे, सो. वली विनय सुयश सुख संग रे, सो.जय.॥१०॥
देना नहीं जानते :-एक बार देवलोक में वहां के कल्पवृक्षों को उल्टे पैर दूम दवाकर भागना पड़ा । क्यों कि वे बिना हाथ पसारे किसी को एक घास का तिनका भी देना नहीं जानते । सच है, "दे दिया सो दूध बराबर और मांग लिया सो पानी" । किसी के बिना मांगे, बिना कहे-सुने, दूसरों की भलाई के लिये अपनी संपत्ति का सदुपयोग करना ही तो श्रीमन्ताई की सार्थकता है।
बेचारे कल्पवृक्षों ने वर्षों तक अज्ञातवास भोगा, कठिन तपश्चर्याएं की तब कहीं उन्हें अपनी आत्मशुद्धि के फल स्वरूप श्रीपाल के हाथों में अंगुलियाँ बनने का सौभाग्य प्राप्त हुा । अतः अब ये गत जन्म के कल्पवृक्ष ही अंगुलियों के रूप में दिन-रात धारा प्रवाही दान देते थकते नहीं । “ठोकर लगने से ही तो मानव में बुद्धि आती है"। यहाँ कवि का यह अभिप्राय है कि श्रीपालकुंबर के दोनों हाथों की दसे अंगुलियों की दान प्रवृत्ति से ऐसा ज्ञात होता है मानो यह शास्त्रोक्त दस प्रकार के कल्पवृक्ष ही न हो ।
उसी प्रकार सम्राट् श्रीपालकुबर की कमल के फूल-सी खिली हंस-मुख सूरत उसका सच्चरित नैतिक साहस शत्रुओं के मान-मर्दन की क्षमता, तत्परता, अनुभव शासन करने की योग्यता लग्नशीलता और आध्यात्मिक आचरण आदि अपार महद् गुणों के आगे अन्य बड़े बड़े राजा-महाराजाओं के चरित्र गुण और उनकी शासन-व्यवस्था बड़ी मन्द-निरस देख पड़ती है ।
आगे कवि कहता है कि अंगुली के अग्रभाग से मेरुपर्वत की ऊंचाई का अनुमान, कुश (एक प्रकार के पास ) की नेक से समुद्र के संपूर्ण जल को उलचना, विशाल नभोमंडल के समस्त तारकाओंको अंगुलियों पर गिनना और हवा के साथ उठकर अपने हार्थों से गगन-मंडल को छूना अपेक्षाकृत उतना कठिन नहीं कि महाभाग्यशाली सम्राट श्रीपालकुंबर के अपार सद्गुणों का पार पाना ।