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घमण्ड से आदमी फूल सकता है, फल नहीं सकता। घमण्ड से हीनता और दुर्गति पर दवाती है।
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এ- এ06 श्रीपाल रास
राम के साथ तुलना करने में जरा भी संकोच न होता था । जनता माटी भक्षक मेदकों के समान अपायी क्षती दूसखोर राजाओं के सामने श्रीपालकुंबर को राजहंस की दृष्टि से देखती थी ।
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I ब्रह्मा,
पवित्र गंगा है : - श्रीपाकुंबलर ने अपने राज्य में चारों ओर डंके की चोट स्पष्ट घोषणा कर दी थी कि " आराम से जीओ और जीने दो ।" वे किसी निरपराध जीवों की हिंसा करने वाले व्यक्ति को अति कठोर दण्ड दिये बिना कदापि न चूकते। उन्होंने ऐसे अनेक शुभ कार्यों से शासन प्रभावना कर एक महान आदर्श प्रस्तुत किया । सच है, अधिकारों को पाकर उनका सदुपयोग करने से ही तो सम्यग्दर्शन की विशुद्धि होती है श्री सिद्धचक्र के भजन-चल से श्रीपालकुंवर का आत्मबल इतना अधिक बढ़ गया था कि उस दिव्य तेज के सामने संसार की कोई शक्ति टिक नहीं सकती थी । यहाँ कवि कल्पना करता है कि पुराण-साहित्य में तीन देवों को प्रधान माना हैं विष्णु और महेश । इनको भी सम्राट श्रीपालकुंवर के प्रचण्ड प्रताप (तेज) से वचन के लिये अनेक उपाय करना पड़े। जैसे कि ब्रह्माजी को कमल के फूल की ओट लेना पड़ी, विष्णु भगवान ने समुद्र का आश्रय लिया, कैलाशपति शंकर महादेव को अपने मस्तिष्क का संतुलन बनाए रखने के लिये सिर पर गंगाजी को धारण करना पड़ा। चन्द्र-सूर्य तो आज भी प्रत्यक्ष दिन-रात घूमते-फिरते देख पढ़ते हैं। कुंवर के नाम से ही उनके शत्रुगण ची बोल, भागने लगते । कुंवर की जय-विजय की यशः श्री पवित्र गंगा है तो उनके शत्रुदल की हार अपयश की एक गन्दी कंजी है। कधिक क्या कहूँ, कुंवर ने देश के विकास और जन-जन की भलाई के लिये जो कार्य किये हैं वे उज्वल कपूर के समान हैं तो अन्य स्वार्थी - लालची राजा-महाराजाओं की सेवा का प्रदर्शन काला कोयला हैं । अर्थात् सम्राट् श्रीपाल के कार्य कमल-फूल के समान जनता को सुखद थे तो अन्य धृतों की सेवा के आश्वासन श्यामल भ्रमरों के समान महा दुःखद थे ।
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सुरतरु स्वर्ग थी उतरी रे लाल, गया अगम अगोचर नाम रे सोभागी. जिहां कोई न जाणे नामरे, सो. तिहाँ तपस्या करे अभिराम रे सो. जब पाम्युं अद्भुत ठाम रे सो. तस कर अंगुली हुआ ताम रे सी. जय० ॥|१४|| जस प्रताप गुण आगलो रे लाल, गिरुओं ने गुणवन्त रे सो. पाले राज महंत रे सो. वयरी नो करे अन्तरे सो. मुख पद्म सदा विकसत रे सो. लीला लहेर धरंतु रे सो. जय० ||१५||