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परिग्रह ही सबसे बड़ा पाप है। इसी में सारे पाप एक साथ समा जाते हैं । इससे बचा ॥ २७४RREN
E RASAREKAR67 श्रीपाल रास तिहां जोग नालिका समता नामे विश्वनो तारूजी । ते जोवा मांडी उतपथ छांडि उद्यमें वारूंजी । तिहां दीठी दरे आनन्द पूरे, विश्वनो तारूजी। उदासीनता शेरी नहीं भव फेरी वक्र छे वारूंजी ||८|| ते तू नवि मूके जोग न चूके विश्वनो तारूजी । बाहिर ने अन्तर तुज निरन्तर सत्य छे वारुंजी । नय छे बहुरंगा, तिहाँ न एकंगा विश्वानो तारूजी । तुमे नय पक्षकारी छो अधिकारी मुक्तिना वारूंजी ॥९॥
राजमार्ग है:-परम तारक गुरुदेव ! धन्य है, आप सुख को सुख और दुःख को दुःख न मान कर सदा आत्मचिंतन में लीन रहते हैं। आपकी दिव्य, शांत, और हंसमुख __ मुद्रा निर्भयता का प्रत्यक्ष प्रमाण है । " निर्भयता सफलता का राजमार्ग है"। आपका मन
शरद् के आकाश सा स्वच्छ और हलका है, कोई दुविधा नहीं ; आप समदशी हैं । आशा तृष्णा और मान-अपमान तो आप से कोसों दूर है। आप भेद विज्ञान ( आत्मा और देह ये दोनों एक-दूसरे से भिन्न हैं । आत्मा नित्य है तो देह एक माटी की कच्ची गागरिया है ) के गूढ़ रहस्य को समझ कर सदा स्व-स्वभाव में रहने से निहाल हो गये हैं । सच है " अपनी विशुद्ध आत्मा का बोध होना ही तो जीवन की सब से बड़ी विजय है।"
गुरुदेव धन्य हैं ! आप बावीस' परिषह आदि अनेक विघ्नों की अग्निपरीक्षा में उत्तीणे हो, विशद्ध संयम की साधना में स्थिर हैं। जैसे कि रणभूमि में बरसती बंदूक की
बावीस परिषहः-मुनिषद ग्रहण करने के बाद चारित्र में स्थिर रहने और कर्म-बंधन का क्षय करने के लिये जो जो परिस्थिति समभाव पूर्वक सहन करने योग्य है, उसे परिषह कहते हैं । १-२ भूख और पिपासा का चाहे जितना कष्ट हो फिर भी अपने वन की मर्यादा के विरुद्ध माहार पानी म लेना ही क्षुधा और पिपासा परिषह है । ३-४ ठण्ड और गरमी के कष्ट को हंमते-हंसते सहन करना शीत और उष्ण परिषह है । ५ डांस, मच्छर, खटमल आदि जन्तुओं के उपद्रव को बिना रोप के सहन करना दंम मशक परिषह है । ६ मर्यादित वस्त्र में (नग्नता ) समभाब पूर्वक जीवन व्यतीत करना अचेल परिषह है । ७ अपने साधना मार्ग में अरुचि के प्रसंघ उपस्थित होने पर मी धैर्य से डट कर मजन करना अरति परिषह हैं। ८ साधक स्त्री-पुरुषों को अपनी साधना में विजातीय आकर्षण से न ललचाना स्त्री परिषह है। १ किसी भी एक स्थान पर नियत वास स्वःकार न कर प्रभु-भजन करना चयाँ परिषह है। १० किसी शांत सुदर स्थान पर मर्यादित