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हाड़ मांस का देव घोंसला, पक्षी जीव पवनका । आज उड़े या कर उड़ जावे, नहीं भरोसा क्षण का ।। हिन्वी अनुयाद सहित
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5 * * २२७१ जा रहे थे । अल्प समय में ही उन्हें जातिस्मरण ज्ञान प्राप्त हुआ, फिर तो वे शानबल से चलचित्र के समान अपने गत भव के धटनाचक्र को देख आश्चर्यचकित हो गए । सच है, अपने संचित शुभाशुभ कर्मों को तो भोगना ही पड़ता है । अतीत के चित्रने उनकी आँखे काया पलट दी। उनके जीवन का मोड़ बदला । एक दिन श्रीपालकुंवर पर उनकी आंखें चिनगारियां बरसा रही थीं। आज वही आँखें कुंवर पर सुधा-धारा बरसा कर कुत्यकृत्य हो गई। वे श्रीपालकुवर से सप्रेम क्षमायाचना कर मुनि बन गए। धन्य है, धन्य है ! अजितसेन राजर्षि को।
चौथा खण्ड - पांचवीं ढाल
(थारे माथे पचरंगी बाग) हुओ चारित्र जुत्तो समिति ने गुत्तो, विश्वनो तारूजी । श्रीपाल ते देखी सुखी सुगुण गवेषी, मोहियो वारूजी ॥ प्रण में परिवारे भक्ति उदारे, विश्वनो तारूजी । कहे तुज गुण थुणिये पातक हगिये, आपनां वारूंजी ॥१॥ उपसम असिधारे क्रोधने मारे, विश्वनो तारुजी ।
तू मदव वज्जे मदगिरि भज्जे, मोटका वारूंजा ॥ बना देता है कि जिसके कारण जीव को अनंत काल तक संसार में भ्रमण करना पड़े, वह कम अनुक्रम से अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया और लोभ कहलाता है । जिन कर्मों के उदय से उत्पन्न कषाय सिर्फ इतने ही तोव हों, जो कि विरति का ही प्रतिबंध कर सकें, वे अप्रत्याख्यानी कोष, मान, माया और लोम कहलाते हैं। जिनका विपाक देशविरति का प्रतिबन्ध न करके सिर्फ सर्व विरति का ही प्रतिबंध करे वह प्रत्याख्यानी क्रोध, मान, माया और लोभ कहलाते हैं। जिनके विपाक की तीव्रता सर्व विरति का प्रतिबन्ध तो न कर सके लेकिन उसमें स्खलन और मलिनता ही पैदा कर सकें वे संज्वलन क्रोध, मान, माया और लोभ कहलाते हैं ।
नोकरायः-हास्य, रति, अरति, भय, शोक जुगुप्सा (घृणा ) स्त्री, पुरुष और नपुंसक वेद, ये नव ही मुख्य कषाय के सहचारी एवं उद्दीपक होने से नोकषाय कहलाते हैं ।