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________________ मानव ! आत्म-विचार क्रिया कर, बुद्धि होयगी निर्मल । मिट जावे विद्वेष चित्त के दूर हो गये अब मल ॥ २७.BHASHREEKRISHRAREKAR श्रीपाल रास राजद्रोह से वध-बंधन, बच्चों के साथ क्रूड़कपट करने से दुर्गति और गोत्रिय बन्धुओं से ईर्षा और छल-कपट करने से अपयश की प्राप्ति होती है। मैं स्वयं इन तीनों पापों को कालिख से अपना मुंह रंग चुका हूँ। अब तो सिवाय नरकावास के इस संसार में मैं कहीं भी मुंह बताने लायक न रहा । अतीत का सिंहावलोकन करते हुए राजा अजितसेन का हृदय गद्गद हो गया। उनकी आत्मा तिलमिला उठी " विश्वासघात महा पाप"। वे आत्मशुद्धि का मार्ग खोजने लगे। संसार एक अनंत अविराम प्रवाह है तो क्या जीव उसमें पाषाण-खंडकी भांति बहता लुड़कता गुढकता और टकरें खाता ही रहेगा ? क्या मानव को इस संसार में चलना ही है ? उसकी गति का कहीं विराम नहीं है ? कोई आश्रय-स्थल नहीं; कोई मंजिल नहीं ? आत्म-दर्शन एवं सहज स्वरूप की उपलब्धि ही तो इस जीव की अन्तिम मंजिल है ।। राजा अजितसेन का हृदय जिनेन्द्रदेव-दर्शित त्याग की ओर आकर्षित हुआ । चारित्र में यह शक्ति है, जो नके निगोदादि अनेक दुःखों का अन्त कर शिवमुख (मोक्ष) रूपी वृक्ष को हरा भरा कर देती है। मुनि सातवें आठवें गुणस्थानों को स्पर्श कर अपनी अति पवित्र विचारधारा के बल से बंध, उदय', उदीरणा और सत्ता की प्रकृतियों का क्षय कर नवमें गुणस्थान में क्षपक श्रेणी से घाती कमी का अन्त कर केवलज्ञान तथा संपूर्ण आयुष्य भोम कर वे मोक्ष में जाते हैं। कई जीव ऐसे भी हैं जो अन्तर मुहूर्त में ही अपनी आत्म-विशुद्धी करने की क्षमता रखते हैं। कपाय' महापर्वत को चूर चूर करने में संयम (मुनिपद ) वन है, नोकषाय दावाग्नि' को प्रशांत करने में सम्यक चारित्र सावन भाद्रपद की वर्षा के समान है। जीवन का मोड़ः- चारित्र के गुणों का बार-बार मनन-चिंतन से राजा अजितसेन की मोह दशा का रंग छूमंतर हो गया । वे बड़े वेग से आत्म-विकास की ओर बढ़ते चले १. गुणस्थान:-प्राध्यात्मिक विकास के चढ़ाव-उत्तार का क्रम । २. उदय:-कर्म का प ल दान उदय कहलाता है। अगर कर्म अपना फल देकर क्षय हो तो वह फलोदय और फल दिये बिना ही नष्ट हो जाए तो वह प्रवेशोग्य कहलाता है। उदारणा:-महीना-वीस दिन में वृक्ष पर पकने वाले फल को लोग मढ़ी बफारा आदि से एक-दो दिन में पका लेते हैं। इसी प्रकार बंध के समय नियत हुई अवधि में कमी करके कर्म को अति शीघ्र उदय में ले आना उदोरणा है। ३. सत्ता:-कर्म बंध होने मोर फलोदय होने के बीच कर्म आत्मा के साथ संलग्न रहते हैं। उस अवस्था को सप्ता कहते हैं। ४.कषाय:-क्रोध, मान, माया और लोभ-इनको कषाय कहते हैं । प्रत्येक की तीव्रता के सरतम भाव की रष्टि से चार-चार भेद है । जो कर्म उक्त क्रोध आदि चार कषायों को इतना मधिक तीव्र
SR No.090471
Book TitleShripalras aur Hindi Vivechan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNyayavijay
PublisherRajendra Jain Bhuvan Palitana
Publication Year
Total Pages397
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size12 MB
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