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निज स्वभावमें मगन रहना, कर न इच्छा कोई । स्वच्छ होय समता भो पावे परम शांति भो माई ।। हिन्यो अनुशव सहित 1
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२६९ किहां वृद्ध पण हूं सदा, पर द्रोह करवा पाप । किहां बाल पण ए सदा, पर उपकार स्वभाव ||३|| गोत्र दोह कीरति नहीं, रोज द्रोह नवि नीति । बाल द्रोह सद्गति नहीं, ए त्रणे मुझ भीति ॥४॥ को न करे ते में कयु, पातिक निठुर निजाण । नहीं बीजुं बहु पापने, नरक बिना मुझ ठाण ॥५॥ एवा पण सहु पापने, उद्धवा दिये हत्थ । प्रवज्या जिनराजनी, छे इक शुद्ध समत्थ ॥६॥ ते दुःख वल्ली वन दहन, ते शिव सुख तर कन्द । ते कुल घर गुग गण तणुं, ते साले सवि दंद |७|| ते आकर्षण सिद्भिर्नु, भव निकर्षण तेह । ते कषाय गिरिभेद पवि, नोकषाय दव मेह ॥८॥ प्रवज्या गुण इम ग्रहे, देखे भवजल दोष । मोह महामद मिट गयो, हुओ भावनो पोष ॥९॥ भेदाणी बहु पापथिति, कर्मे विवरज दीध । पूरख भव तस सांभर्यो, रंगे चारित्र लीध ।।१०॥
आत्मशुद्धि का मार्गः- अजितसेन को अपनी भूल पर बड़ा खेद हुआ । (स्वगत) हाय ! मैंने व्यर्थ ही घोर पाप का टोकरा अपने सिर पर लादा । यदि राजदूत चतुरमुख के संदेश को मान लिया होता तो न नरसंहार, रक्तपात ही होता और न मेरी दुर्दशा । सच है, शुभ अभिप्राय को न माननेवाले व्यक्ति को ठोकर खाना ही पड़ती है।
अहो! कहाँ यह एक शांत मूर्ति हंसमुख सीधा सादा सहृदय राजकुमार श्रीपाल और कहां में महापातकी एक बूढ़ा खूसट अन्न का कीट । देखो इसकी बोली में कितनी मिठास और कैसी विनम्रता है ! मेरी अपवित्र आंखें इस गुदड़ी के लाल को परख न सकी। सचमुच यह एक अनमोल हीरा है ।