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________________ , जब तक मेघ छूटे ना नभ से नहीं चांदनी भासे । राग द्वेप ना जावे जब तक, नहीं तत्त्व प्राशे ॥ २६८ २० **%* श्रीपाल रास संहार के पाप का बोझ सिर पर लादने से क्या लाभ १ याद राखो ! एक दिन इसका बदला चुकाते समय आपको " लेने से देना भारी होगा । राजा अजितसेन बड़ी दुविधा में पड़ गये । यदि वे रणभूमि से मुंह मोड़ते हैं तो क्षत्रित्व के सिर कलंक का टीका लगना निश्चित है । आगे बढ़े भी तो " निर्बल की दौड़ कहाँ तक " ? उनका सिर चकराया | राणा की सीख पर पानी फिरते देर न लगी। वे आवेश में आ अपनी राजपूती पर उतर गये। अन्त में वे शीघ्र बन्दी बना लिये गये। ये समाचार क्षण में चारों ओर प्रसारित होते ही महाराजाधिराज श्रीपाल कुंवर की जय-विजय डंका बजने लगा । ' आज चंपानगर के निकट समरभूमि में महाराजाधिराज श्रीपालकुंवर की अध्यक्षता में जय-विजय महोत्सव बड़े समारोह के साथ मनाया गया। सम्राट् ने युद्ध - विजय की बधाई देने वाले भाट, चारण, राजदूतों को विपुल धन दे निहाल कर दिया । एक उच्चाधिकारी ने कुंदर को प्रणाम करके कहा - महाराज की जय हो ! देव ! सेनापति महोदय, वैदीको साथ ले, सेवा में उपस्थित हो रहे हैं। कुंवर सिंहासन से उठे ओर उन्होंने आगे बढ़कर राजा अजितसेन को बंधन से मुक्त कर दिया । श्रीपालकुर - पूज्य काकासाहब ! मैं धृष्टता के लिये क्षमा चाहता हूँ । अब मेरा सादर अनुरोध हैं कि आप सहर्ष चंपा का राज्य करें। आपका यह बालक सत्ता का भूखा नहीं। संभव है, अब तो आपने मुझे ठीक तरह से परख ही लिया ना ? अजितसेन लज्जा से धरती में गढ़े जा रहे थे । उनका उत्तर था आँसू के गरम गरम दो बिन्दु | श्रीमान् उपाध्याय यशोविजयजी महाराज कहते हैं कि यह श्रीपाल -रास के चौथे खण्ड की चौथी ढाल कड़खा वीरछंद में संपूर्ण हुई । श्रीसिद्धचक्र की विशुद्ध मनोयोग से साधना करने वाले प्रिय पाठक और श्रोतागण को विपुल ऋद्धि सिद्धि सुख सौभाग्य की प्राप्ति होती है । दोहा अजितसेन चिंते कर्यु. अविमास्यु में काज | वचन न मान्युं दूतनुं, तो न रही निज लाज ॥१॥ आप शक्ति जाणे नहीं, करे सवल शुं जूझ । सुहित वचन माने नहीं आपे पडे पडे अबूझ ||२|| ܀ ܕ ܪ
SR No.090471
Book TitleShripalras aur Hindi Vivechan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNyayavijay
PublisherRajendra Jain Bhuvan Palitana
Publication Year
Total Pages397
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size12 MB
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