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सुत धन दारदिक भी वैसे, आते हैं फिर जाते हैं। हर्ष शोक तू उनका मत कर, तेरा कुछ न घटाते
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* श्रीपाल रास
आपके ये शब्द कदापि मेरे विचारों को बदल नहीं सकते हैं। आप इसी समय अति शीघ्र उज्जयिनी जा कर अपने स्वामी श्रीपाल से, डंके की चोट कह दें कि वे स्वप्न में भी चंपा की आश न रखें ! आपको सिंह- केशरी अजितसेन जीतेजी कदापि सिर न झुकाएगा । श्रीपाल का और मेरा संबंध ही क्या है, मैंने उसे दया कर के जिंदा छोड़ दिया था, उसी का यह कटु फल है, कि आज वह मुझे आँख बता, गीदड़ भबकी दे कर मेरी चंपा की सत्ता हड़पना चाहता है । अजितसेन इतना डरपोक, (कायर) नहीं है, जो कि अन्य बुध्धु राजाओं के समान अपना आत्मसर्पण कर, श्रीपाल से प्राणों की भीख मांगे । आपके स्वामी के सिर पर कालचक्र घूम रहा है, तभी तो उसने सोये सिंह ( अजित सेन ) को जगाकर असमय में मृत्यु को आमंत्रण दिया है। चतुरसुख ! आप श्रीपाल को महासागर मानते हैं ? तो आप अजितसेन को बड़वाल मानने में जरा भी शंका न करें । वीरों के भुजबल की परख रणभूमि में ही तो होती है। अरे! बड़वाग्नि तो बड़ी दगाबाज हैं, वह तो छुप-छुप कर जल का शोषण करती है, किन्तु अपने राम तो अभी लपक कर प्रत्यक्ष श्रीपाल के सामने रणभूमि में आते हैं।
44 अजित "
श्रीमान् उपाध्याय यशोविजयजी महाराज कहते हैं कि यह श्रीपाल - रास के चौथे खण्ड की तीसरी ढाल संपूर्ण हुई । श्रीसिद्धचक्र की आराधना करने से पाठक और श्रोतागण को सहज ही " सुयश " और "विनय" गुण की प्राप्ति होती है ।
दोहा
वचन कहे वयरी तण, दूत जई अति वेग । क काने ते सुणी, हुओ श्रीपाल सते ॥ १ ॥ उच्च भूमि तटिनी तटे, सेना करी चतुरंगी । चंपादिशी जई तिणे दिया, पट आवास उत्तंग || २ || सामो आव्यो सबल तव, अजितसेन नरनाह । महिमाँही दल बिहुँ, मल्या सगख उत्साह ||३||
भुजाएं फड़क उठीं:- श्रीपालकुंवर चतुरमुख की प्रतीक्षा में थे । संध्या समय
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दूतने आकर कहा महाराजाधिराज की जय हो ! श्रीपालकुंवर समाचार लाए ? दूत - महाराज ! मैंने राजा अजितसेन को कहा :
चतुरमुख ! कहो ! क्या
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