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सब में अपना प्यारा आत्मा देख, इसमें रत मन हो । सुख दुःखादिक द्वन्द सहन कर, हर्ष विषादि मत बन ॥ २५८ -
ॐ
श्रीपाल राम अमीर-उमराव, राजकुमार की चरणसेवा करना, अपना सौभाग्य मानकर बड़े वेग से उज्जायनी की ओर बढ़ते चले आ रहे हैं। वास्तव में आप श्रीमान् को भी स्वयं राजकुमार की सेवा में पहुंचना अनिवार्य था। फिर भी हमारे महाराज, बड़े समयज्ञ विनयी है। वे आपको पिता की दृष्टि से देखते हैं। अतः अब उन्होंने आपसे सादर अपनी धरोहर चंपानगर की मांग की है । पराई थाती को समय पर लौटा देने आपका विशेष महत्त्व है। किहां सरमव किहां मेरू गिरिंद, किहां तारा किहां शारदचन्द । सा. । किहां खद्योतं, किहां दिनानाथ, किहां सायर किहां छल्लर पाथ । सा. ।।५।। किहां पंचायण, किहां मृगवाल, किहां ठीकर किहां सोवनथाल | सा.। किहां कोद्रव किहां कूर कपूर, किहां कूकश ने, किहाँ घृतपूर । सा. ।।६।। किहां शुन्य बाड़ी, किहां आगम, किहां अन्यायी किहाँ नृप राम । सा. । किहाँ वाघ ने, किहाँ वलि छाग, किहाँ दया धरम किहाँ वलि याग ।सा. 10) किहाँ झूठ ने, किहाँ वलि साच, किहाँ रतन, किहाँ खंडित काच । मा.। चढ़ते ओठे छे श्रीपाल, पड़ते तुम सरिखा भूपाल । सा. ॥८॥ जो तू नवि निज जीवित रूप तो प्रणमी करे तेहज तुट्ठ । सा. । जो गर्वित छे देखो ज. तो रण करवा थाये सज्ज । मा. ॥९॥ तस सेना सागर माँहि जाण, तुज दल साधु पूर्ण प्रमाण । सा. । मोटासु नवि कीजे सूझ, सवि कहे एहवं बूझ सा. ॥१०॥
रणभूमि का आमंत्रण :-" चम्पा की सत्ता" का नाम सुनते ही राजा अजितसेन के कान खड़े हो गये। उन्होंने कुछ संभल कर, झिझकते हुए कहाचतुरमुख ! कल का दूधमुहा छोकरा श्रीपाल क्या स्वाक चम्पा का राज्य करेगा ? अनुशासन करना बड़ी टेढ़ी खीर है। आप जानते हैं, कीड़ी के पंख क्यों आते हैं ? पंख प्रत्यक्ष उसकी मृत्यु का आमंत्रण है ।
राजदूत को अब विवश हो कुछ कठोर शब्दों का प्रयोग करना पड़ा। उसन कहा-राजेन्द्र ! कहाँ मेरु पर्वत, कहाँ राई का दाना; कहीं शरद-चन्द्र, कहाँ मन्द तारे; कहाँ चमकता सूर्य, कहाँ बेचारा जुगनू ; कहाँ क्षीरसागर, कहाँ गंदा नाला; कहाँ केशरी सिंह, कहाँ हिरण का नन्हा बच्चा, कहाँ सोनेका थाल, कहां मिट्टी का फूटा