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___यह संसार असार है, हे ! मन नहीं यहां कुछ सुन्दर । इष्ट समझ कर राग करे मत, द्वेष अनिष्ट समझ कर।। हिन्दी अनुवाद सहित ॐRR
C HI२२५७ चौथा खण्ड-तीसरी ढाल
( राग, - बंगला, किसके चेले किसके पूत) अजितसेन छे तिहाँ भूपाल, ते आगल कहे दूत रसाल, साहिब सेविये। कला शीखवा जाणी बाल, जेते भोकलीयो श्रीपाल, सा. ॥१॥ सकल कला तेणे शीखी सार, सेना लई चतुरंग उदार, सा. । आव्यो छे तुज खंधनो भार, उतारे छे ए निरधार, सा. ॥२॥ जीरण थंभ तणो जे भार, नवि ठवीजे ते निरधार, सा.। लोके पण जुगतुं छे एह, राज देई दाखो तुमे नेह, सा. ॥३॥ बीजु पयपंकज तस भूप, सेवे बहु भक्ति अनुरुप, सा.। तुमे नवि आव्श उपायो विरोध, नवि असमर्थ छे तेहसुं शोध, सा. ||४||
खट-मिठे, चटपटे :-राजा अजितसेन की राजसभा में नये-पुराने समाचारों की चर्चा चल रही थी। चतुरमुख दूतने आकर सम्राट को प्रणाम करके कहा-~-महाराज ! आपने सुना होगा कि राजकुमार श्रीपाल विदश का प्रवास कर अपनी चतुरंगिणी सेना के साथ सानन्द वापस उज्जयिनी में पधार गये हैं। उन्होंने अपनी छोटी सी अवस्था में साहित्य, संगीत, धर्मशास्त्र और राजनीति आदि अनेक कलाओं का गंभीर अध्ययन किया है। आपने उन्हें बचपन से ही एक इतना अच्छा सुन्दर अवसर दिया था कि आज वे स्वयं अपने पैरों पर खड़े हो गये हैं ।
अब मेरा आप श्रीमान से सादर विनम्र अनुरोध है कि आप वृद्ध हैं, अतः अपने __ कंधे से चंपानगर की सत्ता का भार अलग कर, सत्ता राजकुमार को सौंप दें। “अवसर
बेर, बेर नहीं आवे" | इस वर्ण अवसर को हाथ से न जाने दें। वृद्धावस्था का आवरण हादी-मूर्खे भी तो हमें यही पाठ पढ़ाती हैं कि मानव ! तू भी मेरे समान मन को उज्वल कर अपनी आत्मा का कल्याण कर ले, इसी में तेरा भला है। प्रभु-भजनका रंग उज्ज्वल हृदय पर ही तो चढ़ता है । इस जीर्ण-शीर्ण तन का क्या भरोसा ? न जाने कब दगा दे दे। इन शब्दों से अब तक अजितसेन के कानों की जूं तक न रेंगी।
राजदूत चतुरमुख ने फिर अपनी चाल बदली। महाराज ! आप यह न समझें कि राजकुमार श्रीपालकुंवर अकेले हैं। आज प्रत्यक्ष दूर दूर से कई राजा-महाराजा,