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________________ मूढ मान ले कहना मेरा, तज दे चंचलताई । चंचलताई दुःख मूल है, समता है सुखदाई ॥ २५४ - - - - - भोपाल रास मपणासुन्दरी ने, सुरसुन्दरी को अभिनेत्री के बन्धन से मुक्त कर उसे सादर अपने गले लगा ली । पश्चात् उसे मालूम हुआ कि मेरे बहनोई राजकुमार अरिदमन भी वर्षों से हमारी सेना में दासता कर रहे हैं । अतः उसने अपने प्राणनाथ श्रीपालकवर से प्रार्थना कर उनको भी दासता के पाश से अलग कर दिया । बड़े ठसके के साथ हाथी के होदे तोरण मारने वाले अपने साहसाब राजकुमार अरिदमन की करुणा दशा देख श्रीपालकुंवर का हृदय भर आया । सच है-कर्मराजा के यहाँ घूस खोरी नहीं चलती है । उसे तो समय पर मानव के शुभाशुभ का भूक्तान करना ही पड़ता है। कुंवर बड़े समयज्ञ, उदार-दयालु थे, उन्होंने उसी समय राजकुमार अरिदमन को सादर हाथी, घोड़े, रथ-पालकी, विपुल धन दे सुरसुन्दरी के साथ शंखपुर की ओर विदा कर दिया । जनता भी मान गई कि वाह रे, वाह !! श्रीपालकुंवर वास्तव में मानव नहीं, देव है। बुराई का बदला भलाई से देने वाले विरले ही तो होते हैं। चलते समय दोनों पति-पत्नी का हृदय गद्गद हो गया आँखों में आंसू आ गये । उनकी अन्तर आत्मा बोल उठी, है प्रभो! हमें भव-भव में श्रीसिद्धचक्र की ही शरण हो!! जय सिद्धचक्र! श्रीपाल कुंवर को धन्य है, वास्तव में साली और साढू हो तो ऐसे हो । गुरुदेव इनका भला करे । संध्या समय कुंवर एक स्वर्ण सिंहासन पर बैठे हैं। एक द्वारपालने, मुजरा अर्ज कर कहा-महाराज ! प्रधानमंत्री पधारे हैं । " उन्हें सादर अन्दर ले आओ" | वृद्ध मतिसागर ने कुंवर को प्रणाम कर के कहा-नाथ ! धृष्टता के लिये क्षमा करें । खेद है कि आपके बचपन में संकट के समय में आपकी ज़रा भी सेवा न कर सका | श्रीपारकुंबर-मंत्री महोदय ! आपकी समयज्ञता से ही तो मुझे नवजीवन मिला, मैं फला-फूला, मुझे परम तारक प्रकट प्रभावी श्रीसिद्धचक्र महा-मंत्र की साधना का भी सुअवसर मिला। " माताजी मुझे प्यार करते समय कहा करती थीं कि मुन्ना : मैं महामंत्री मतिसागर की बुद्धि से निहाल हो गई, मानो तुम्हें नवजीवन मिला" | बापुजी! मैं आपका हृदय से बड़ा आभारी हूँ | आपको शत शत धन्यवाद है। प्रधानमंत्री कुंवरजी ! आज संसार में अपने अनेक दुर्व्यसन, कुसंगत, कटु स्वभाव डंडे और वचनों से माता-पिता, परिवार के हृदय को संतप्त दुःखी करने वाले कुल-कंटक बेटे-बेटियों की कमी नहीं किन्तु आपने अपने मुजबल से मान-समान, विपुल वेभत्र, उज्ज्वल सुयश प्राप्त कर सम्राट सिंहस्थ का नाम अच्छा चमकाया | आपको मेरा कोटि-कोटि प्रणाम है। धन्य है ! धन्य है !! राजकुमार! आज आपके दर्शन कर मैं कृतार्थ हो गया । कुलदीपक हो तो ऐसा हो । हाँ ! कुंवरजी, एक ठाकुर अपने साथियों के साथ
SR No.090471
Book TitleShripalras aur Hindi Vivechan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNyayavijay
PublisherRajendra Jain Bhuvan Palitana
Publication Year
Total Pages397
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size12 MB
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