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________________ वह त्याग ही उत्तम कहा जो पात्र के हित हो सदा । निकाम जिममें भात्र हो उपार परका सब दा ।। २५२ ARRI ALS श्रीपाल रास हो जी एकज विजय पताक, मयणा सयणां मां लहे हो लाल । हो जा जेहनुं शील सलील, महिमा ये मृग मद मह महे हो लाल ॥१३॥ हो जी मयगा ने जिनधर्म, फलियो बलियो सुस्ता हो लाल । हो जी मुझ भने मिथ्याधर्म, फलियो विष फल विषतरु हो लाल ||१४|| हो जी एकज जलधि उत्पन्न, अमिय विषे जे आंतरी हो लाल । हो जी अम बिहुं बहेनी मांही, तेह छे मत कोई पांतरो हो लाल |१५|| हो जी मयणा निज कुल लाज, उद्योतक मणि दीपिका हो लाल | हो जी हुँ छु कुल मल हेतु, सघन निशानी झीपिका हो लाल ॥२६॥ हो जी मयणा दीठे होय, समकित शुद्धि सोहामणि हो लाल । हो जी मुज दीठे मिथ्यात, धीठाई होय अति घणी हो लाल १.१७॥ सुरसुन्दरी-पिताजी ! अधिक क्या कहूं, अब मैं संसार में मुंह बताने लायक न रही। सती साध्वी मयणा और मैं हम दोनों आप ही की तो सन्तान हैं, फिर हम दोनों में आकाश पाताल का अन्तर है। मयणा अमृत है, तो मैं हलाहल विष हूं । मयणा क्षत्रिय वंश का चमकता चांद है तो मैं एक सघन अंधियारी रात हूं । मयणा के दर्शन और चरणस्पर्श, आत्म-विकासका एक साधन है, तो मेरी छाया में बैठना भी पाप है। मयणा, सुरतरु सम जैनधर्म और श्रीसिद्धचक्र की साधना से निहाल हो गई है, तो मैं मोह ममता और अंधश्रद्धा के हेय आकर्षण में डूब मरी | सुरसुन्दरी का हृदय गद्-गद हो गया। उसने सम्राइ प्रजापाल को बड़ी नम्रता से कहा-पिताजी ! मैं अपने समस्त परिवार और उपस्थित नागरिकों से अपनी धृष्टता के लिये बार बार क्षमा चाहती है। खेद है कि आज मैं अपने परिवार का मोह संवरण न कर सकी । मेरा जीना, न जीना समान है । मेरी प्यारी बहिन मयणासुन्दरी ! इस भूतल के इतिहास में तेरे कठोर त्याग, तप, विनय, सेवा आदर्श पति-भक्ति और आत्मसंयम के विनयध्वज की ख्याति सदा के लिये स्मरणीय रहेगी। धन्य है ! धन्य है !! तुझे कोटि कोटि प्रणाम है। तालियों की गडगडाहट और धन्यवाद की ध्वनी से आकाश गुंज उठा ।
SR No.090471
Book TitleShripalras aur Hindi Vivechan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNyayavijay
PublisherRajendra Jain Bhuvan Palitana
Publication Year
Total Pages397
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size12 MB
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