________________
वैराग्य में जो सुख अतुल है, नहीं है उपमा कहीं । भोग का सुख अरु दिव्य सुख मी, अंश पा सकते नहीं । का अनुवाद सहित F r **
* *
१४९ एक रमणी ने झुककर प्रजापाल से कहा-पिताजी! प्रणाम | "पिता" शब्द सुनते ही राज के कान खड़े हो गये । वे बड़े असमंजस में पड़, मन ही मन कहने लगेअरे ! एक बड़े भारी सम्राट के घर, मेरा क्या संबंध , उन्हें मौन देख रमणी ने जरा उच्च स्वर से कहा-पिताजी ! अब भी कुछ संशय है । वह अपने पति की ओर हाथ से संकेत कर के बोली-आप इनको पहचानते हैं ? प्रजापाल ने श्रीपालकुंवर की सूरत को जरा ध्यान से, गौर कर के देखी तो वे धरती खुरचने लगे। उन्हें अपनी गंभीर भृल और व्यर्थ के गर्व पर बड़ा पश्चात्ताप हुआ । वे चीख पड़े-सचमुच कर्म ही प्रधान है। प्रधान है !! जमाई-राज मुझे क्षमा करें ! मेरी अपवित्र आँख आप श्रीमान को पहिचान न सकी। मयणा !! तू अपने इस अभागे पिता को एक बार क्षमा कर दे। मैंने जैन सिद्धान्त की महान् आशातना की है। बाप-बेटी का शल्य दूर हो गया। प्रजापाल ने उसी समय अपनी सौभाग्यसुन्दरी, रूपसुन्दरी दोनों रानियों को शिविर में बुला लिया | राजा-रानी वर्षों के बाद अपने बेटी-जमाई को फले फूले देख आनन्दविभोर हो गये। एक दिन प्रजापाल ने हंसी का फुहारा छोड़ते हुए श्रीपालकुंबर से कहा--जमाई-राज! हमारे यहाँ से तो आप रीते हाथ परदेश सिधाये थे। आपका इतना ठाट-पाट जुटाते बड़ा कड़ा परिश्रम पड़ा होगा ?
श्रीपालकुंबर-श्रीमानजी ! घानी के बैल बनने से भी कहीं भाग खुला है ? नहीं । कुम्हार के गधे दिन-रात क्या कम परिश्रम करते हैं ? नहीं, बहुत अधिक । फिर भी वे बेचारे सदा राख में लोटते रहते हैं । भाग्य चमकाने का एक ही अचूक उपार है स-विधि श्रीसिद्धचक्र आराधना करो। इसका आज प्रत्यक्ष उदाहरण मैं स्वयं आपके सामने हूँ। मालवपति प्रजापाल भी मान गये कि वास्तव में श्रीसिद्धचक्र आराधन ही सार है। पश्चात कुंवरने परिवार के मनोरंजन के लिये बन्चरकूल के प्रसिद्ध नाटक मंडल को अभिनय का आदेश दिया ।
चौथा खण्ड-पहली ढाल (हो जी लुंबे झुंडे बरसेलो मेह, आज दिहाड़ो घरणी तीजरो हो लाल) हो जी पहेलं पेड़ ताम, नाचवा उठे आपणी हो लाल ! हो जी मूल नटा पण एक, नवि उठे बहु परें भणी हो लाल ॥१॥ हो जी उठाड़ी बहु कष्ट, पण उत्साह न सा घरे हो लाल । हो जी हाँ हाँ करी सविषाद, दृहो एक मुखे उचरे हो लाल ॥२॥