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संतोष धारा अमृत की है, पान जो इसका करे । होकर निराकुल आप में रम, आपमें निज रस भरे ||
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श्रीपाल रास
एहवा मंत्री वयण सुणी, धरी कुहाड़ो कंठ | मालव नरपति आवियो, शिविर तणे उपकंद ||५|| ते श्रीपाल छोडावियो, पहिराव्यों अलंकार | सभा मध्ये तेड्यो नरपति, आप्यो आसन सार ॥ ६ ॥ तव मयण निज तातने, कहे बोल जे मुज्ज । कर्म वशे वर तुमे दियो, तेहनुं जुओ ए गुज्ज ॥७॥ तव विस्मित मालव नरपति, जमाउल प्रणमंत | कहे न स्वामा तु ओलख्यो, गिरुओ बहु गुणवंत ॥८॥ कहे श्रीपाल न माहरो एवो एह बनाव | गुरु दर्शित नवपद तणो. ए के प्रबल प्रभाव || ९ || ते अचरज निसुणी मिल्यो, तिहाँ विवेक उदार । सोभाग्यसुन्दरी, रूपसुन्दरी प्रमुख सयल परिवार ॥१०॥ स्वजन वर्ग सघलो मल्या, वर्त्यो आनन्द पूर । नाटक कारण आदि से, श्री श्रीपाल सनूर || ११
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अब भी कुछ संशय है ? प्रजापाल के प्रधान मंत्री ने कहा - नाथ ! विजय का प्रमुख द्वार है समयज्ञता । समय के साथ चलने वाले मानव की सदा जीत है। इस समय अपने द्वार पर आगत नरेश का प्रबल पुण्योदय है । सूर्य की प्रखर किरणों से खिझ कर उस पर धूल फेंकना क्या बुद्धिमानी है ? नहीं । अन्त में धूल तो फेंकने वाले के सिर पर गिरना निश्चित है। आंधी तूफान के सामने दीपक ऋत्र तक टिक सकता है ? मानव भाग्यसे बड़ा बनता है, कहने से नहीं ! " जैसा बाजे वायरा, वैसी लीजे ओड़ " । नाथ ! मेरा आप से विनम्र अनुरोध है कि आप इस समय क्रोध न कर प्रेम से दूत की बात मान लें । राजा प्रजापाल - मंत्रीजी ! धन्यवाद । सच है, कभी गाड़ी नाव में तो कभी नाव गाड़ी में ।" वे समय को मान देकर, उसी समय अपने कंधे पर एक कुल्हाड़ा रख, श्रीपाल कुंवर के शिविर की ओर चल दिये । कुंवर उनको दूर से आते देख वे आगे बढ़े और उनके कंधे से कुल्हाड़ा फिक्या कर सादर प्रजापाल को अपने डेरे में ले गये । उनका बहुमूल्य वस्त्रालंकारों से सत्कार किया ।
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