________________
क्षोभ आकुलता जहां है वहीं राज्य अशांति का | संघर्ष का दुर्भात का, अपराध का अरु भ्रांति का ॥ हिन्दी अनुवाद सहित BHASHARAR
I ५४७ फिरे हैं अतः यह अपने पिता से बदला लेना चाहती है । नहीं ! स्वामिन् ! मेरा उद्देश्य यह है कि किसी भी प्रकार पूज्य पिताजी की आत्मशुद्धि हो जाय, तो अच्छा है।
इस निमंत्रण से जनता भी सतर्क हो जायगी कि वास्तव में सिद्धान्त की अबहेलना करना बहुत ही बुरा है। आगे से भूल कर भी कोई जैन सिद्धान्त की आशातना करने का साहस न करेगा। साथ ही भविष्य में हमारी बहन-बेटियां भी स्वच्छंदता के महरे गर्त (खड्डे) से बाल-बाल बच जायगी ।
आज श्रीपालकुवर अपनी पत्नी के टकसाली खरे शब्द सुन आश्चर्यचकित हो मंत्र-मुग्ध हो गये । उनका हृदय पुलकित हो उठा | वाह रे, वाह !! रानी हो तो ऐसी हो । देवि ! धन्य है ! धन्य है !! तुम नारी नहीं, साक्षात् लक्ष्मी हो । तुझे पाकर मैं धन्य हो गया । पश्चात् दूत श्रीपालकुंवर का संदेश ले नगर की ओर प्रस्थान कर गया
प्रजापाल राज-सिंहासन पर बैठे थे। पास ही अमीर उमराव एक-दूसरे का मुंह ताक रहे थे। सच है, जलती आग में पैर बढ़ाना बड़ी टेढ़ी खीर है। उसी श्रीपालकुंवर के दूत का संदेश सुन प्रजापाल आग बबूला हो गये । उनकी आँखों से अंगारे रसते देख, प्रधानमंत्री ने कहा-नाथ ! इस समय आपे से बाहर होना उचित नहीं।
श्रीमान् उपाध्याय यशोविजयजी महाराज कहते हैं कि यह श्रीपाल-सस के चौथे खण्ड की पहली ढाल संपूर्ण हुई । इस कथा में शक्कर से भी बढ़कर रस माधुर्य है। रे मानव ! संसार में आकर यदि तुझे कुछ करना है, तो तू निश्चित ही श्रीसिद्धचक्र आराधना कर । सुयश और सु-प्रसिद्ध प्राप्त करने का यह एक रामबाण उपाय है ।
दोहा मंत्री कहे नवि कोपिये, प्रबल प्रतापी जेह । नाखीने शुं कीजिये, सूरज सामी खेह ॥१॥ उद्धत उपरे आथडच, पसस्तु पण धाम । उल्हाए जिम दीप, लागे पवन उद्दाम ॥२॥ जे किरतारे बड़ा किया, तेहशुन चाले रौश । आप अंदाजे चालिये, नामी जे तस शीश ॥३॥ दत कहे ते कोजिये, अनुचित करे बलाय । जेहनी वेला तेहनी, रक्षा पहज न्याय ॥४॥