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निज स्वार्थ को रोते सभी कोई न रोता मृतक को, अपने लिये है प्रिय सभो. कोई न पूछे एक को ।। २४२. 55
A SSANSAR श्रीपाल रास लेखक हैं खण्ड चार के, यशोविजय वाचक प्रवर । मुनी न्याय कहें अनुवाद हिन्दी, आगे पढ़ें पाठक प्रवर ।।
दोहा
त्रीजे खंडे अखंड रस, पूरण हुओ प्रमाण । चोथो खंड हवे वर्णवू, श्रोता सुणो सुजाण ॥१॥ शीस धुणावे चमकियो, रोमांचित करे देह । विकसित नयन वदन मुदा, रस दिये श्रोता तेह ।।२।। जाणज श्रीता आगले, वक्ता कला प्रमाण । ते आगे धन शुं करे, जे मगसेल पाषाण ॥३॥ दर्पण आंधा आगले, बहिरा आगल गीत । मूरख आगल रस कथा, त्रणे एकज रीत ॥१॥ ते माटे सज थई सुणो, श्रोता दीजे कान ! बुझे तेहजे रोझ, लक्ष न भूले ज्ञान ॥५॥ आगे आगे रस घणों, कथा सुणंता थाय ।
हवे श्रीपाल चरित्र नां. आगे गुण कहेवाय ।।६।। प्रिय पाठक और श्रोतागण ! अब आपके सामने पूज्य उपाध्याय यशोविजयजी श्रीपालरास का यह चौथा खण्ड प्रस्तुत कर रहे हैं। श्रीता और वक्ता ये दोनों एक ही थैली के चट्टे-बट्ट हैं। इनमें जरा भी अंतर हुआ कि सारा आनन्द किरा-किरा हो जाता है। कथा लेखक और वाचक एक जादूगर है। वह अपने आकर्षक शब्दों से क्षण में पाठक और श्रोतागण को हंसा-हंसा कर लोटपोट कर देता है, तो क्षण में लाना और क्षण में जनता की थैली से चांदी बरसाना तो उसके बांए हाथ का खेल है। मानव हृदय को चुटकियों में बदल देना ही जो वक्ता की विशेषता है। यदि श्रोता और पाठकों में योग्यता का अभाव है, तो फिर सारा खेल चौपट ही समझियेगा।