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ये पुत्र मित्र कलत्र सारे स्वार्थ के हैं जग में सगे। स्वार्थ यदि इनका न हो तो दूर जाते हैं भगे ॥ २४० 1998 श्रीपाल रास
पर चढ़ कर दूर से टिड्डीदल अपार सेना को निकट आते देख उनके पांव तले धरती खिसकने लगी । फिर भी " हारिये न हिम्मत " धड़ा-धड़ नगरकोट के द्वार बंद हो गये । अन्न-जल, वस्त्र, इंधन आदि का ढेरों से संग्रह, सैनिकों की भतीं, और युद्ध की बड़े जोरों से तैयारियाँ होने लगीं । भय से उज्जयिनी के आसपास गांवों के नागरिक इतनी अधिक संख्या में राजधानी में आ पहुंचे, कि मार्ग में पैर रखने की जगह नहीं । गढ़ के बाहर चारों और अपार चलते फिरते सैनिक दल के बीच उज्जयिनी नगरी एक छोटे से द्वीप सी दिख पड़ती थी ।
राजा श्रीपालकुंवर अपनी पूज्य माता के चरणस्पर्श की धून में बड़े वेग से नगर की ओर बढ़ते चले जा रहे थे, किन्तु चर से मालूम हुआ कि कभी से नगर कोट के द्वार बंद हैं, अतः उन्हें मार्ग में ही ठहरना पड़ा। रात को चतुरंगिणी सेना निद्रादेवी की गोद में अपनी थकावट का अंत कर रही थी, किन्तु श्रीपालकुंवर को जननी के दर्शन के बिना एक पल एक युग सा लगता था । वे अपने दिव्य हार के प्रभाव से न मालूम किस समय अपने घर कमलप्रभा के द्वार पर पहुंच गये किसी को पता तक न लगा ।
श्रीमान् उपाध्याय पूज्य यशोविजयजी महाराज कहते हैं कि यह श्रीपाल -रास के तीसरे खण्ड की आठवीं डाल सम्पूर्ण हुई। श्री सिद्धचक्र (नवपद) करने से पाठक और श्रोताओं को अखण्ड सुख-सौभाग, विनय और सुयश की प्राप्ति होती हैं ।
चौपाई
खंड खंड मिठाई घणी, श्री श्रीपाल चरित्रे मणा । ए वाणी सुरतरु बेलड़ी, किसी द्वाखने शी शेलड़ी ॥
श्रीपाल रास के प्रत्येक खण्ड में कल्पलता समान श्री सिद्धचक्र महिमा दर्शक संगीत कथा में ऐसा रसमाधुर्य है कि उसके आगे ईख और अंगूर कोई चीज नहीं । इसे पाठक और श्रोतागण बार-बार हर आश्विन और चैत्र शुक्ला में पढ़ सुन कर मंत्रमुग्ध हो जाते हैं ।
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