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________________ स्त्री को न भूलो । स्त्री शक्ति को न भूलो । स्त्री शक्ति की देवी है। २० श्रीपाल रास मयणासुन्दरी ने सुरसुन्दरी के समान ही पंडित सुबुद्धि से अध्ययन किया था । किन्तु उसकी अभिरूचि जैन सिद्धान्त नवतत्व, कर्मग्रंथ, प्रवचन सागेद्धार, संग्रहणी, द्रव्य गुण पर्याय, स्यावाद की ओर थी उसका प्रमुख विषय था जैन दर्शन । जैन दर्शन एक आध्यात्मिक दर्शन है। जैन संस्कृति आत्मवाद की संस्कृति है। आत्मा अपने विशुद्ध स्वरूप में रह सके, तथा आ सके अत: जेन दर्शन असन का प्रतिषेध करता है। भौतिक विकास जैन दर्शन का साध्य नहीं, वहां इसका गौण स्थान रहा है । जैन दर्शन मोक्ष शास्त्र है। राजकुमारी मयणासुन्दरी ने अनेकान्त का गहन अध्ययन कर निश्चित कर लिया था कि 'कला कला के लिये है। कला में विष और अमृत दोनो तत्व निहित हैं । कला का स्वार्थ भाव, शोषण वृति, काम लिप्सा से प्रयोग करना विष है | कला का परमार्थ भाव, कर्तव्य परायणता से प्रयोग करना अभृत तुल्य है भव सागर से पार लगाने वाला है। राज कुमारी सुरसुन्दरी और मयणासुन्दरी की कला कौशल में समता प्राप्त करने के लिए चन्द्र देव बहुत भटके किन्तु फिर भी वे सोलह कला से अधिक न पा सके, जब कि राजकुमारियों चौसठ कला में निपुण थीं ।। श्रीमान् विनय विजयजी महाराज कहते हैं कि श्रीपाल-रास की यह पहली दाल संपूर्ण दुई । श्रोतागण और पाठकों के घर आनन्द मंगल होवे । दोहा एक दिन अवनी-पति इस्यो, आणी मन उल्लास । पुत्री नुं जोऊ पार, खु विद्या विनय क्लिाम ॥ १ ॥ सभा मांहे शणगार करी, बोलाबी बेहुँ बाल । आवी अध्यापक सहित, मोहन गुणमणि माल ॥ २ ॥ (७) तालाब, बावड़ी, मकान आदि बनाना । (८) घड़ी, बाजों और दूसरी मशीनों को सुधारना । (२) वस्त्र-रंगना । (१०) न्याय, काव्य, ज्योतिष, व्याकरण सीखना । (११) नांव, रथ आदि बनाना (१२) प्रसव-विज्ञान । (१३) कपड़ा, बुनना, सूत कातना, धुनना । (१४) रत्नों को परीक्षा करना । (१५) वादविवाद, शाखाथ करना । (२६) रत्न एवं धातुएं बनाना । (१७) प्राभूषणों पर यालिश करना । (१८१ चमड की मदंग, ढोल नगारे, वीणा वगैरह तैयार करना । (१९) वाणिज्य । (२०) दूध दुहना (२१। घो,
SR No.090471
Book TitleShripalras aur Hindi Vivechan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNyayavijay
PublisherRajendra Jain Bhuvan Palitana
Publication Year
Total Pages397
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size12 MB
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