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ज्ञान सम्यक् है वही, जो आत्मश्रद्धायुक्त हो । और हैं कुमान मारे जो मृष्टिवियुक्त हो । हिन्दी अनुवाद सहित KAKKA
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२३५ अभी मिनटों में सुध में आ सकती हैं। कुंवर की बात सुन शमशान में चारों ओर कानाफूसी होने लगी। "दादा ! मरा मुर्दा भी कहीं जिन्दा हुआ है ? नहीं।"
राजा श्रीपाल -- प्रिय महानुभायो ! श्री सिद्धचक्र में एक अनूठी दिव्य शक्ति है । इसकी महिमा अपार है। इस रहस्य को वे ही जानते हैं, जिनके हृदय में विशुद्ध अनन्य प्रेम और परम श्रद्धा हो । जिसे सिद्धचक्र के अतुल बल और अपनी आत्मशक्ति का अनुभव हुआ है, वे वाणी से इस का अनुपम महत्त्व वर्णन करने में असमर्थ हैं । सिद्धचक्र के गुणों का वर्णन पैसा हो है, जैसा किसी धनकुबेर को लखपति कह कर उसकी महिमा प्रकट करना । पश्चात कुंवर ने दृढ़ संकल्प के साथ अपने दिव्य हार का प्रक्षालन कर उस जल को राजकुमारी के अंग पर छींटा, जल के छीटें पड़ते ही उसी समय तिलकसुंदरी उठ बैठीं। उसे पता नहीं कि मैं इस समय कहां हूँ। इयमशान का विचित्र रुप देख भय से कांप उठीं और आँखे बंद कर गले विचार करू गई । पहा में स्वप्न तो नहीं देख रही हूँ ? नहीं !! अभी तो चारों ओर धूप है। राजकुमारी को गुन-गुनाते देख उसकी माता रानी ने उसके सिर पर बड़े प्यार से हाथ रख कर कहा - उठो बेटा तिले ! तिले !! कोल्लागपुर के नरेश ने तुम्हें नवजीवन दिया है। हमारे सोये भाग जागे । तिलकसुंदरी ! इस सद पुरुष के चरणस्पर्श कर इनका स-धन्यवाद आभार मानो । ये मानव नहीं देव हैं । राज-परिवार की बड़ी बूढ़ी महिलाएं एकसाथ बोल पड़ी-राजेन्द्र युग-युग जीओ। बेटा ! जग में तुम्हारी जस कीर्ति बड़े । तिलकसुन्दरी अपने पिता महसेन के पैरों में लिपट गई ।
महसेन - तिलकसुन्दरी ! भय से जो अपनी रक्षा करे उसी का नाम भर्ता है। मेरा तो यही अभिप्राय है कि कोल्लागपर नरेश ने ही तुझे काल के गाल से बचाया है, अब भविष्य में भी यही सत्पुरुप तेरा - आजीवन संरक्षण करे । तू इनके चरणकमलों में अपना जीवन-धन समर्पण कर दे। अपने पिता का आशय देख तिलकसुन्दरी ने राजा श्रीपाल की ओर आंख उठा कर देखा तो, वह उनके अनन्य उपकार और रूप सौंदर्य को देख मंत्र-मुग्ध हो गई । लज्जा से उसका मुंह लाल हो गया। वह मन ही मन काने लगी, प्राण और प्रेम यह भी एक समस्या है। यदि मैं इनको (श्रीपालको) अपने प्राण मानती हूँ तो प्रेम के बिना प्राण निरस ही हैं, उस जीवन का कोई मूल्य नहीं । जहां प्राण का अभाव है, फिर तो प्रेम का अनुभव होगा ही किसे ? वास्तव में प्राण और प्रेम दोनों अभिन्न हैं। इन दोनों के संमिलन का नाम ही तो "विवाहित
आनंद है ।" तिलक सुन्दरी की भोली-भाली सूरत उसके मृगनयनों ने श्रीपालकुंवर के हृदय में बड़ी गुदगुदी पैदा कर दी, वे अपने आपको संभाल न सके । अरे! मैंने एक नहीं