________________
नित बैठ कर एकान्त में, निज भारमध्यान त्रिकाल हो । उपपास पोषध पर्व दिन में, आत्म-शुद्धि विशाल हो। हिन्दी अनुवाद सहित
ॐ २३३ अनुरोध है, कि आप शीघ्र ही एक बार थाणा नगर पधार कर हमें अनुगृहीत करें । मंत्रीमंडल का विशेष आग्रह देख कुंवर ने उन्हें जरा स्वीकृति प्रदान कर दी। पश्चात् दुगर ने अपनी सभी पत्नियों को संदेश भेज कर बाहर से उन्हें अपने पास कोल्लागपुर बुलवा लीं । सेवा में उपस्थित स्त्रियों के साथ आगत हाथी, घोडे, रथ दास-दासियों और सैनिक दल को देख सम्राट पुरंदर दाँतो तले अंगुली दे, मन ही मन कहने लगे-ओह ! धन्य है, इस पुण्यवान को। उन्हों ने भी बडे समारोह धूम-धाम से अपनी लाहिली बेटी जयसुन्दरी को श्रीपालकुंवर के साथ थाणा नगर विदा कर दी ।
सम्राट् वसुपाल श्रीपालकुवर का स-परिवार चतुरंगिणी सेना के साथ शुभागमन सुनकर फूले न समाए । सारा नगर कलापूर्ण सुन्दर द्वारों और ध्वजा-पताकाओं से सजाया गया । महिलाएं स्वर्ण कलश, हरी दून सिर पर रख भाणेज-जमाई के स्वागत की कामना से आगे बढ़ती चली जा रही थीं। वसुपाल थाणा के प्रतिष्ठित नागरिकों के साथ नगर-उद्यान के निकट, कुंवर की टकटकी लगाकर प्रतीक्षा कर रहे थे । उनके आते ही ढोल नगाड़े और शहनाइयों की ध्वनि से आकाश मुखरित हो उठा । कुंवरी कन्याओं ने स्थान-स्थान पर अक्षत और मोतियों से उन्हें बधा कर बड़ ही समारोह के साथ नगरप्रवेश करवाया ।
एक दिन सम्राट् चसुपाल राज-माता से बात कर रहे थे सहसा बात ही बात में रानी का हृदय भर आया, उसने अपने आँसुओं को पीना चाहा, फिर भी बरबस दो मोती तो ढल ही पड़े। वसुपाल-देवि ! देवि ! ! क्यों, क्या हुआ ? स्वास्थ्य कैसा है ? --नहीं प्राणनाथ ! मैं स्वस्थ हू । - स्वस्थ हो ? - आपकी कृपा है ।--देवि : तुम संकोच न करो।-नहीं प्राणनाथ, मैं अपने मन को बहुत ही कड़ा करती हूं, फिर भी यह जी न मालूम कैसा होने लगता है । मुझे सूना राजमहल काटन दौड़ता है। विपुल संपत्ति, गीत-गान आमोद-प्रमोद के साधन शूल से लगते हैं ।
"वह घर ही क्या जो बच्चों की हंसी के कहकहों से गूंजता न हो । जहाँ उनके आपस के लड़ाई-झगडे, ठुकम-ठुमक कर चलना और तुतली मीठी बोली सुन न पड़ती हो। स्त्री का जीवन तो बच्चों के विना सूना है ही; पर पुरुषों के लिये भी, जिनको संतान नहीं है उनको अन्त समय में दो यूंट पानी ही कौन दे? “आप मरे, जग हवा" । ऐसी वस्तु तो है नहीं जो मोल ले ली जाय ।
सम्राद वसुपाल :-देवि ! वास्तव में तुम्हारा कहना ठीक है। किन्तु जटिल अन्तराय कर्म के आगे किसी दाल नहीं गलती है । षट् खण्ड के स्वामी भरत चक्रवर्ती के पिता (भगवान आदिनाथ) लगातार ४०० दिन तक घर-घर भटके, फिर भी उन्हें शुद्ध आहार