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मद तो चला नहि चकियों का, मान मदित हो गया। फिर इतर जन की तो क्या ? जहा तू स्त हो गया। हिन्दी अनुवाद सहित KANGANACH ARC२ २३१
सम्राट्र-पंडितजी ! पुतली के परों तले जो आठ-चक्र लगे हैं, क्या वे भी घूमते हैं ? हाँ, हाँ ! वे आठों चक्र उसर दक्षिण बड़े वेग से घूमते रहते हैं। इसी के बीच ठीक निशाना लगाना ही तो कला है ।---गुरुजी ! यह तो बड़ी टेढ़ी खीर है। अच्छा, धन्यवाद ।
मंडप नृप मंडाविया, राधावेघ विचार । पण नवि को साधी सके, पण साधशी कुमार ॥११॥ इम निसुणी ते भट्टने, कुंडल देई कुमार । स्यणी निज वासे वसी, चाल्या प्रात उदार ॥१२॥ पहोतो ते कोल्लागपुर, कंवर दृष्टि सब साखी । साध्यो राधावेध तिहां, हार महिम गुण दाखी ॥१३॥ जयसुन्दरीये ते वर्यो, करे भूप विवाह ।
तास दत्त आवास मां, रहे मुजश उच्छाह ॥१४॥ जयसुन्दरी का विवाहः- वीर युवक ! सम्राट् पुरदर ने एक सुन्दर कलापूर्ण विशाल मंडप बनाकर राधावेध की चारों और घोषणा कर दी है । सुनहरा समय चीता जा रहा है । आप विलंब न करें । श्रीपालकुंवर ने स-धन्यवाद अंगभट्ट को अपने बहुमूल्य कानों के दो कुण्डल भेट दे, उन्हें विद दी । पश्चात् वे अपनी प्रेयसी शूमारसुन्दरी के साथ एक दिन सुहाग रात विताकर दूसरे दिन वे सूर्योदय होते ही अपने दिव्यहार के प्रभाव से कोल्लागपुर पहुंचे। वहां सभा मंडप में कई राजकुमार राधावेध करने को उत्सुक थे; किन्तु वे बेचारे राजकुमारी जयसुन्दरी का गुलाब सा रंग, चांद सा मुखड़ा, हरिणी सी आँखें और तोते सी नाक, लाल लाल होंठ देख भान भूल गए । निशाना चूकते ही, उन्हें अपना सा मुंह ले घर लौटना पड़ा। सभामंडप में चारों ओर कानाफूसी होने लगी। “मजा बिगड़ गया, राधावेध होना संभव नहीं"। राजकुमारी का अंदर ही अंदर जी सूखा जा रहा था। हाय, क्या होगा!
इधद श्रीपालकुंवर की बारी आते ही एक वृद्ध उनसे पूछ बैठा-बेटा ! इस सभामें कहां कौन बैठा है ? कुंवर ने मुस्कराकर कहा--दादा ! राधापुतली की बाई आँख की कीकी के सिवाय मुझे कुछ भी पता नहीं कि यहाँ कौन है? बूढ़ा चुप हो गया। कुंवर ने अपने इष्ट श्रीसिद्धचक्र का स्मरण कर, ऐसा ताक कर बाण मारा कि राधापुतली