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________________ विनय ही है पात्रताका, हेतु जिससे संपदा । सपत्ति से ही धर्महोता और मिटती आपदा ।। २३०/ 3RDAS TRAM श्रीपाल रास आठ. चक्र थंभ उपरे, दक्षिण ने वाम । अर विवरो परी पूतली, काठनी राधा नाम ॥६॥ तेल कढ़ा प्रति चिंब जोई, मुके अधो मुख बाण । वेधे राधा वाम अन्छि, राधावेध सुजाण ॥७॥ धनुर्वेदनी ए कला, चार वेद थी उइ । उत्तम नर साधी सके, नवि जाणे कोइ मूढ़ ॥८॥ ते सुणी तुज पुत्री नृपति, करे प्रतिज्ञा एम । वरशुं राधावेध करि, बीजो वखा नेम ॥९॥ महोटा मंडप मांडिये, राधावेध नो संच । करिये जिम वर पामिये, पाठक कहे प्रपंच ॥१०॥ सम्राट् पुरंदर:-पंडितजी! राजकुमारी जयसुन्दरी का अब युवावस्था में प्रवेश हो रहा है। अब इसके सम्बन्ध का योग कहां और कैसे होगा ? पंडित - राजन् ! वेद शास्त्रों में धनुर्वेद के अन्तर्गत राधावेध एक सर्वश्रेष्ठ कला है । इस कला में सफल होना बच्चों का खेल नहीं। कोई भाग्य से विरला ही मनुष्य इस कला में सफल हो सकता है। एक दिन राजकुमारी को अध्ययन कराते समय, मुझे ज्ञात हुआ कि वह उस व्यक्ति को ही वरेगी, जो राधावेध की कला में पारंगत होगा। यह जयसुन्दरी की अटल प्रतिज्ञा है। राजन् ! मेरा आपसे यही एक नम्र अनुरोध है, कि आप एक सुन्दर विशाल सभा मंडप बनाकर शीघ्र ही राधावेध की घोषणा कर दें। इस उपाय से आपको घर बैठे ही एक अच्छे सुयोग्य सुन्दर कलाकार वर का सुयोग प्राप्त हो सकेगा । सम्राट पंडितजी ! राधावेध किसे कहते हैं ? राजन् ! एक स्तंभ पर आठ चक्र लगा कर उस पर एक लड़की की पुतली खड़ी कर देते हैं । जो कि बड़े वेग से चारों ओर घूम-फिर सके । पश्चात् उस स्तंभ के नीचे एक कढ़ाव तेल से भर कर ऐसे ढंग से रखें कि उसमें चलती फिरती पुतली का स्पष्ट प्रतिबिंब दिख पड़ । फिर साधक अपना धनुष बाण उठा कर तेल के प्रतिबिंब की ओर ताक कर ऐसा निशाना मारे की बाण लगते ही उपर लकड़ी की चलती फिरती, पुतली की बांई आंख फूटे विना न रहे । इसी का नाम राधावेध है।
SR No.090471
Book TitleShripalras aur Hindi Vivechan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNyayavijay
PublisherRajendra Jain Bhuvan Palitana
Publication Year
Total Pages397
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size12 MB
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