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________________ ___ शुभ आचरण ही धर्म है, जो श्रेष्ठ सुख में जा धरे | शुभ आचरण बनता तभी जब आत्म-श्रद्धा मन घरे । हिन्दी अनुवाद सहित 60 ****6637 २२५ योलने से पचास सागरोयम और संपूर्ण नवकार मंत्र केवल " एक ही बार बोलने से पांच सौ सागरोपम के पाप नष्ट होते हैं ! इस गंग के से एक लास जप करने से अरिहंतपद की प्राप्ति होती है । सु-देव, गुरु और अहिंसा परमो धर्म की साधना ही तो जीवन है । प्रगुणा की समस्या :-" कर सफलो अप्पाण” (पुतले ने कहा) आराहिज्ज जेव गुरु, दिह सुपनहिं दाण । तप संयम उवयार करि, कर सफलो अप्पाण ॥३॥ रे मानत्र ! तू अनादि काल से संसार के सामने हाथ पसारता आ रहा है , फिर भी तेरा भिख मंगापन दूर न हुआ । “पर की आशा सदा निराशा" दरिद्रता से छुटकारा पाने का एक ही अचूक उपाय है, सु-देव, गुरु धर्म की आराधना, सु-पात्र दान, विशुद्ध संयम पालन और परोपकार करना । यह आत्म-कल्याण का राजमार्ग है । निपुणा की समस्या :-" जित्तो लिह्यो निलाड़" हे रे मन अप्पा खंचि करि, चिंता जाल म पाड़। फल तिनो हिज पामिये, जित्तो लियो निलाइ ।।४।। रे मानव ! चिंता एक ठंडी आग है । इस आग ने अनेक गुलाब के फूल सी सुन्दर पूरतों को सुखा कर अस्थि-पंजर बना डाला । इस आगने असमय में हजारों नवयुवकों के यौवन को नष्ट कर उन के गले दम, खांसी, क्षय, जीर्णज्वर, हृदयरोग मढ़ कर उन्हें यमलोक पहुँचा दिया, फिर भी इस आग की लपटें शांत न हुई । तू अपने आप को इस आग में न झोंक, अपने मन के संकल्प-विकल्पों का त्याग कर आत्मचिंतन कर । क्यों कि जो तेरे भाग्य में लिखा है, उससे अधिक मिलना तो संभव नहीं | हाँ! तू पुरुषार्थ का त्याग न कर । भजन-बल से एक दिन तेरा भाग्योदय होते देर न लगेगी। दक्षा की समस्या :-"तसु तिहअण जण दास" हो अस्थि भवंतर संचिओ, पुण्ण समग्गल जास । तसु बल तसु मइ, तमु सिरि तसु तिहु अण जण दास|५||
SR No.090471
Book TitleShripalras aur Hindi Vivechan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNyayavijay
PublisherRajendra Jain Bhuvan Palitana
Publication Year
Total Pages397
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size12 MB
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