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देव दनुज मानव पशु पंखी, काल सभी खा जाता । रात दिन स्वाता ही रहता, फिर भी नहीं अघाना ॥ २२०
।-NCHALSARKARENAR श्रीपाल रास पदार्थों की प्राप्ति में काल, स्वभाव, नियति, शुभाशुभ कर्म और पुरुषार्थ को प्रधान कारण माना है। वास्तव में पुण्योदय के बिना सब सूना है।
प्रिय पाठक और सामान ! अब मैं ( उपाध्याय यशोविजय ) आपके समक्ष त्रैलोक्यसुन्दरी के विवाह के बाद श्रीपाल और शृंगारसुन्दरी का वर्णन प्रस्तुत करता हूँ ।
तीसरा खण्ड-सातवीं ढाल ..
( साहिबा मोतीडो हमारों) एक दिन राजसभाए आध्यो, चर कहे अचरिज मुझ मन भाव्यो।
..... साहिवा रंगीला हमारा, मोहना रंगीला । दलपत्तननो छे महाराजा, धरापाल जस पख बिहु ताजा ॥सा. मो०॥१॥ रानी चोरासी तस गुण खाणी, गुणमाला छे प्रथम वखाणी । पांच बेटा उपर गुण पेटी, शृंगारसुन्दरी छे तस बेटी, सा. मो० ॥२॥ पल्लव अधर हसित सित फूल, अंग चंग कुचफल बहु भूल | जंगम ते छे मोहन वेली, चालती चाल जिसी गज गेली, सा० मो ॥३॥
श्रृंगारसुन्दरी का परिचयः-एक दिन किसी गुप्तचर ने राजसभा में आकर श्रीपालकुवर से कहा, श्रीमान्जी ! में आप से बड़ी अद्भुत बात अर्ज करता हूँ, कृपया आप उसे ध्यान से सुनें । दलपतनगर में महाराज घरापाल राज करते हैं। उनके मातृपक्ष और पितृपक्ष का परिवार बहुत बड़ा है । उनकी चौरासी रानियाँ है । उसमें राजमाता पट्टराणी गुणमाला बड़ी दयालु सेवा-भावी है। उनके पाँच पुत्र थे, किन्तु उन्हें अपने घर में एक कन्या का अभाव बहुत ही खटकता था । पश्चात् वर्षों के बाद पुण्योदय से उनकी आश कली और उनके घर एक बालिका का जन्म हुआ । उसका नाम है, श्रृंगारसुन्दरी ।
श्रीमानजी नवयुवती श्रृंगारसुन्दरी का जैसा नाम है । वैसी ही उसकी वेश-भूषा अनूठा रूप-सौंदर्य और चमकीली ऑखे हैं । उसके मालती के फूल से उज्जवल दांत वृक्ष के नवविकसित पत्तों से लाल होठ बड़े आकर्षक हैं । जैसे मंद-मंद पवन से, पुष्पलता हिलती है, वैसी ही शृंगारसुन्दरी की मस्त-हस्तिनी सी चाल पुरुषों के हृदय में बड़ी गुद-गुदी पैदा कर देती है।