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मन का रचा भेद है सारा, मन मिथ्या है कल्पित । मन संसर्ग त्याग दे जो नर, वह है धौर महा पंडित || २१८EAKERAHARASHTRA
श्रीपाल रास ही तो हुद्धिमानी है | तू अवसर न चूक । यह कुबड़ा, कुबड़ा नहीं किन्तु श्रीसिद्धचक्र आराधक श्रेष्ठ नररत्न श्रीपालकुंबर है। तू नि:संदेह इस के गले में अरमाला डाल दें । अब तो त्रैलोक्यसुन्दरी का दूना उत्साह बढ़ गया । उसने उसी समय उस कुबड़े के गले में वरमाला डाल दी । यह दृश्य देख स्वयंवर मंडप में भारी हल-चल मच गई। सभी राजकुमार चिढ़कर कुबड़े को भली बुरी सुनाने लगे। रे कुबड़े कौए ! भाग जा. चल यहाँ से, चलता बन । राजकुमारी एक अनजान बालिका है। क्या हम वीर राजपूतों के रहते, यह रत्न तेरे हाथ लग सकता है ? कूड़े करकट के ढेर के सामने प्रया सुगंधित धूप होती है ? नहीं । हीरे का हार तो हंस के गले में ही शोभा देना है। अब तू शीघ्र ही इस वरमाला को फेंक कर अपना रास्ता नाप । जनसमा म्यान से अपनी चमकीली तरबारें खींच कर कहा, चल अत्र राना नहीं तो अब धड़ से तेरा सिर अलग होते देर न लगेगी।" --- तव हसिय भणे वामन इस्युं, तुमे जो नवि बरिया पण रे । तो दुभंग रूसो मुझ किस्यु, रूसो न विधि केण रे ॥जु०॥२६॥ पर-स्त्री अभिलाषनां पातकी, हवे मुज असिधास तिथ्य रे । पामी-तुझे शुद्ध थाओ सवे, देखो मुज कहेवा हथ्थ रे ॥जु०॥२७॥ एम कहीं कुब्जे विक्रम तिस्यु, दाख्यु जेणे नस्पति नट्ठ रे । चि चमक्या गगने देवता, तेणे संतति कुसुमनी वुटु रे ।।जु०॥२८॥ हुओ वज्रसेन राजा खुशी, कहे बल परे दाखवी रूप रे। तेणे दाख्यु रूप स्वभावर्नु, परणावे पुत्री भूप रे ॥जु०॥२९|| दियो आवास उत्तंग ते तिहां, विलसे सुख श्रीपाल रे । निज तिलकसुन्दरी नारी सुं, जिम कमला सुं गोपाल रे ॥जु०॥३०॥ त्रीजे खंडे पूरण थई, ए छह ढाल रसाल रे । जस गातां श्री सिद्धक्रनो, होय घर घर मंगल माल रे ॥जु०॥३१॥
मैदान में कूद पड़ा :-राजकुमारों की धमण्डी बातें सुन, कुबड़ा खिल-खिला कर हंस पड़ा । उसने उन्हें ललकार कर कहा “क्रमजोर गुस्सा भारी"- बस चुप रहो । आपकी राजपूती का पता लग गया । यह स्वयंवर मंडप है । राजकुमारी ने अपनी इच्छा