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__ मैं तू आदि भेद भुला कर, एक आत्म को ध्यावें । भव से निश्चय होय मुक्त बह, अंत शाम्त पद पावे ।। हिन्वी अनुयाद सहित RECIRCLERKARॐ
O RE२ २१७ तो उस कुबडे के लिए छटपटा रहा था। अतः वह राजकुमारों की आलोचना-प्रत्यालोचना कर आगे बढ़ जाती। यह देख बेचारे नवयुवकों के गुलाब के फूल से मुखड़े मुझाने लगे ।
इधर कुबड़ा भी कम नहीं, वह राजकुमारी के हृदय को टटोलना चाहता था | सच है:-"पानी पीओ छान कर, दिल देओ जान कर" । किसी बेसमझ मुख से स्नेह करना बड़ा घातक है। उसने अब राजकुमारी को धीरे-धीरे अपना बनावटी कुबड़ा रूप दिखलाना आरंभ कर दिया । राजकुमारी सहसा अपने प्रिय स्नेही का विकृत रूप देख भय से चौंक पड़ी। उसका हृदय धड़कने लगा। ओह ! यह क्या, पल में इतना परिवर्तन !! वह बड़ी उलझन में पड़ गई । उसी समय उसे विचार आयाः “नारी, जीवन में अपना हृदय केवल एक ही बार समर्पण करती है। "
चन्द्र टरे सूरज टरे, टरे नगाधिराज ।
सनारी प्रतिज्ञा ना टरे, मिले पति स्क-गज ॥ यह राजकुमार लाख मेरी कसौटी करे में कदापि अपने विचार न बदलूगी। जादूगर के हाथों की सफाई, भागते हुए घोड़े के पेट की गुड़-गुड़ाद और पुरुष के हृदय की थाह कौन पा सकता है ? " नंद के फंद गोविंद जाने ।" राजकुमारी लोक्यसुन्दरी भी योगी के समान श्रीपालकुंवर के विकृत कुबड़े रूप के दर्शन कर वह अपने हृदय में धृणा के बदले एक अनूठे आनन्द का अनुभव कर रही थी। इण अवसरे थंभनी पूतली, मुखें अवतरी हारनो देव रे । कहे गुण ग्राहक जा चतुर छे तो, वामन वर ततखेव रे ॥जु॥२२॥ ते सुणी वरियो ते कुंवरीए, दोखे निज अति ही करूप रे । ते देखी निभर्स कुब्ज ने, तब रूठा राणा भूप रे ॥जु०॥२३॥ गुण अवगुण मुग्धा नवि लहे, वरे कुज तजी वर भूप रे । पण कन्या रत्न न कुन नु, उकरड़े शो वर धूप रे ॥जु०॥२४॥ तज माल मराल अमे कहूँ , तू काग छे अति विकराल रे | जा न तजे तो ए ताहरूं, गल नाल लूणे करवाल रे ॥जु०॥२५॥
हलचल मच गई:-विमलेश्वर देव ने एक खंभे पर लगी सोने की एक पुतली __ में प्रवेश कर राजकुमारी के कान में घीरे से कहा:-राजकुमारी ! मानवता को परखना