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________________ मैं, तू यह वह मेरा तेरा, यह सब भेद असत् है। सदा शाश्यत एक निरामय, आत्मा केवल सत है। २१६२RA SHIF** * श्रीपाल राम जे सहस स्वरूप विभाव मां, देखे ते अनुभव योग रे। इण व्यति करें ते हरखित हुइ, कहे हुओ मुज इष्ट संयोग रे ॥ जु०१६॥ तस दृष्टि सराग विलोकतो, विचे विचे निज वामन रूप रे । दाखे ते कुमरा सुवल्लही, परि परि परखे करी चूंप रे । जुला१७॥ सा चिंते नट नागर तणी, बाजी बाजी प्लुते जेम रे। मन राजी काजी शुं करे, आजीवित एहशुं प्रेम रे ॥जु०॥१८॥ हवे वरणवे जे जे नृप प्रते, प्रतिहारी करी गुण पोष रे । ते ते हिले वरी दाखवीं, वय रूपने देश नां दोष रे ।।जुन॥१९॥ वरणवां जस मुख उजलु, हेलंतां तेहy श्याम रे। प्रतिहारी थाकी कुंवरने, सा निरखे ति आभराम रे ॥जु०॥२०॥ छे मधुर यशोचित शेलही, दधि मधुर साकरने दाख रे । पण तेहर्नु मन जिहाँ वेधियुं, ते मधुर न बीजा लाख रे ॥जु०॥२१॥ मन चल विचल: - महाराज वनसेन मंडप में सिंहासन पर बैठे थे। एक दासी ने प्रवेश कर कहा-महाराज की जय हो ! राजकुमारी त्रैलोक्यसुन्दरी आ रही है। वह पालकी में बैठी थी। उसके सिर पर छत्र था, छत्र के नीचे वह, किसी ऊंचे पहाड़ पर घन-घोर घटाओं के बीच चमकती बिजली के समान मुहावनी लगती थी। उसके गले में एक बहु-मूल्य मोतियों का सुन्दर हार जगमगा रहा था और कमल से सुन्दर सुकोमल हाथों में एक वरमाला थी। उसके आते ही स्वयंवर मंडप चमक उठा । उसके अनूठे रूप सौ दर्य को देख, जनता चकित हो गई । वहां पास ही कुबड़ा (श्रीपाल) बैठा था। उसे देखते ही राजकुमारी का मन चल-विचल होने लगा । उसकी दृष्टि में बह कुबड़ा, कुबड़ा नहीं वास्तविक श्रीपालकुंवर था। वह उसे घूर-चूर कर तिरछी नजरों से देख कर रह जाती । दूध, दही, शहद, मिश्री ईख और द्राक्षादि पदार्थ एक से एक बढ़कर रसीले और मधुर होते हैं, किन्तु उन पर प्रत्येक व्यक्ति की समान रुचि नहीं होती है। इसी प्रकार स्वयंवर मंडप में भी अनेक नवयुवक उपस्थित थे । दासी प्रत्येक रामकुमार के यशोगान और उनके वंश का परिचय दे देकर थक गई, किन्तु राजकुमारी का हृदय
SR No.090471
Book TitleShripalras aur Hindi Vivechan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNyayavijay
PublisherRajendra Jain Bhuvan Palitana
Publication Year
Total Pages397
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size12 MB
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