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________________ भव सागर तरना हो तो, कामादि यश कीजे । सुख से जीवन यहां बिता कर, अन्त परमपद लीजे ॥ हिन्यो अनुवाद सहित 29 +% % % % % A२६१५ खरदता नाक ते नानपुं, होठ लांबा ऊँचा पीठ रे । आँख पीली केश ते काबरा, रह्यो उभो मांडवा हेठ रे ॥जु०॥११॥ नृप पूछे केई सोभागिया, वली वागिया जागिया तेज रे । कहो कुण कारण तुमे आविया, कहे जिण कारण तुम हेज रे ।जु०॥१२॥ तव ते नरपति खड़ खड़ हशे, जुओ जुओ ए रूप निधान रे। • एहने जे वरशे सुन्दरी, तेहनां काज सर्या वल्यो वान रे ॥जु०॥१३॥ चक्कर काट रहे थेः-परदेशी युवक की बात सुन श्रीपालकुंवर चकित हो गये । उनके हृदय में बड़ी गुद-गुदी पैदा हो गई, " मैं अभी कंचनपुर पहुंचता हूं" | कुवर ने प्रसन्न हो उसको एक बहुमूल्य स्वर्णकंकण दे विदा दी। पश्चात् श्रीपालकुंवर दिव्यहार के प्रभाव से शीघ्र ही सपना एक विचित्र कुबड़ा रूप बनाकर कंचनपुर पहुंचे। वहाँ स्वयंवर मंडप के द्वार पर कई राजा-महाराजा, एक से बढ़कर सुन्दर नवयुवक राजकुमार चक्कर काट रहे थे । वे इस कुबड़े को देख खिल-खिला कर हंस पडे | कोई उसको चिढ़ाता था, तो कोई दया कर कहता-"भाईयोमरे ___ को न मारो, “कर्मन की गत न्यारी" । कुत्रड़े को क्या, वह तो चुपके से चौकीदार को घूस दे अन्दर चल दिया । वहाँ भी वह बेचारा बच न सका । __एक नवयुवक ने उसे स्वर्ण की गुड़िया के पास बैठा देख टोक ही दिया-श्रीमानजी ! आपका रूप सौंदर्य तो बड़ा बांका है। कैसे पधारे ? कुषढ़ ने हलकी मुस्कराहट के साथ कहा, अजी! मैं भी अपने भाग्य परखने आया हू । क्या आप लोगों ने लोक्यसुन्दरी को वरने का ठेला ले रखा है ? कुबड़े के ढंकसाली शब्द सुन, नवयुवक कुछ उत्तर न दे सका। किन्तु राजकुमारों ने तो कह ही दिया, ठीक है, राजकुमारी अवश्य आपको ही पसंद करेगी, उसे आपके समान सुन्दर बर ढूंढने पर भी न मिलेगा। इण अवसरे नरपति कुंवरी, वर अंबर शिविकारूद रे । जाणिये चमकती बीजली, गिरि उपर जलपर गूढ रे । जु०॥१४॥ मुत्ताहल सारे शोमती, वरमाला कर मांहे लेई रे । मूल मंडप आवी कुंवरने, सहसा सूची रूप पलोई रे |जु०॥१५॥
SR No.090471
Book TitleShripalras aur Hindi Vivechan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNyayavijay
PublisherRajendra Jain Bhuvan Palitana
Publication Year
Total Pages397
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size12 MB
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