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आत्ता रोता फिर न रोता, हंस हंस कर काल बिताता । सब को रोता छोड फिर नर, हंस हंस कर यहांसे जाता। हिन्दी अनुवाद सहित S
TARTHATAR २१३ सन्मान प्राप्त होता है:-कोयल के बोलते ही आम का पेड़ मोर-फूलों से लद जाता है | राम जहाँ भी जाते वहीं अयोध्या बस जाती, इसी प्रकार श्रीसिद्ध-चक्र आराधक स्त्री-पुरुषों को अनेक ऋद्धि-सिद्धियां मनचाही धन-दौलत सदा समय समय पर उनका स्वागत करती रहती है। चाहिए भजनबल और पुरुषार्थ । भजनबल से सहज ही अनेक विनों का अन्त, सद्विचार, सद्गुण और मान-सम्मान प्राप्त होता है। पाठक : अवश्य ही जीवन में एक बार सविधि श्रीसिद्धचक्र की आराधना करें।
- तीसरा खण्ड-छट्ठी ढाल ....
(सुण सुगुण सनेही रे साहित्रा) एक दिन एक परदेशियो, कहे कुंवर ने अद्भुत ठाम रे । सुणा जोयण त्रणसे उपरे, छे नयर कंचनपुर नाम रे ॥
जुओ जुओ अचिरज अति भलं ॥१॥ तिहाँ वज्रसेन छे राजियो, अरिकाल सबल करवाल रे । तस कंचनमाला छे कामिनी, मालता माला सुकमाल रे । जु०॥२॥ तेहने सुत चास्नी उपरे, त्रैलोक्यमुंदरी नाम रे । पुत्री छे वेदनी उपरे, उपनिषद यथा-अभिराम रे ।। जु० ॥३॥ रंभादिक जे रमणी करी, ते तो एह घडवा कर लेख रे । विधिने रचना बीजी तणी, एहनो जय जस उल्लेख रे ॥जु० ॥४॥ रोमा निखे. तेहने, ब्रह्मा द्वय अनुभव होय रे । स्मरण अद्वय पूरण दर्शने, तेहने तुल्य नहीं कोय रे ।। जु० ॥५॥ नृपे तसवर सरिखो देखवा, मंडप स्वयंवर कीध रे । मूल मंडप थंमे पूतली, मणि कंचन मय सुप्रसिद्ध रे । जु० ॥६॥ चिहुं पास विमाणा वली समी, मंचाति मंचनी श्रेणी रे । गोरख कारण कर्ण राशि जे, झोपी जे गिरिवर तेणी रे ॥जु०॥७॥