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. रोते आये, रोते रहते, रोते ही चल देते। देते कष्ट पिता-माता को, जन्म व्यर्थ वे लेते। २१२
SHANKARSHAN धीपाल रास की स्वरलहरी बदलते ही कलाकारों की आँख खुली, वे एक दूसरे की सूरत देख धरती खुरचने लगे | राजकुमारी गुणसुन्दरी, कुबड़राम का कला-चातुर्य देख हर्ष से फूली न समाई । उसने उसी समय कुबड़राम के गले में वरमाला डाल तो दी किन्तु इस अनमेल संबंध को देख गुणसुंदरी की माता-पिता आदि सब बड़ी दुविधा में पड़ गए। प्रण के आगे सत्ता कर ही क्या सकती है ?
मकरकेतु ने कहा-कलाकार ! अब हमें न कल्पाओ। आप मानव नहीं देव है । कुबड़राम को तो अपना काम सिद्ध करना था । वह उसी समय प्रत्यक्ष श्रीपाल बन गया । जनता कामदेव से एक सुन्दर सुशील हृष्ट-पुष्ट नवयुवक को देख चकित हो गई। चारों और राजकुमारी के भाग्य की सराहना होने लगी। वाह रे, वाह ! प्रबल पुण्योदय से शिव-पार्वती, विष्णु और लक्ष्मी के समान वर-वधू की यह युगल-जोड़ी ठीक मिली ।
राजपरिवार में आनंद की एक लहर दौड़ गई । फिर तो मकरकेतु बड़े ही समारोह के साथ गुणसुन्दरी का विवाह श्रीपालकुंवर के साथ कर, उसे कन्यादान में हजारों हाथी घोड़े, रथ पालकियाँ बहुमूल्य वस्त्रालंकार आदि वस्तुएं प्रदान की | पश्चात् श्रीपालकुवर गुणसुन्दरी के साथ आनंद से वहीं कुण्डलपुर में रहने लगे।
यह श्रीपालरास के तीसरे खण्ड की पांचवी ढाल संपूर्ण हुई । पूज्य कविवर उपाध्याय जिनयविजयजी महाराज इस ढाल की २० गाथाएं लिख कर, देवलोक हो गये थे । अतः उसके बाद इस रास २१वी गाथा से आगे की रचना उपाध्याय यशोविजयजी महाराज ने की है । उपाध्याय यशोविजयजी महाराज कहते हैं, कि श्रीसिद्धचक्र आराधक पाठक और श्रोतागण विनय-सुयश और अतिहर्ष को प्राप्त करें ।
दोहा पुण्यवंत जिहाँ पग धरे, तिहाँ आवे सवि ऋद्धि । तिहाँ अयोध्या राम जिहाँ, जिहाँ साहस तिहाँ सिद्धि ॥१॥ पुण्यवंत ने लक्ष्मीनो, इच्छा तणो विलंब । कोकिल चाहे कंठस्व, दिये लुच भर अंब ॥२॥ पुण्यवंत परिणति होय भली, पुण्ये सुगुण गरिन्छ । । पुण्ये अलि विधन टले, पुण्ये मिले ते इट्ठ ॥३॥