________________
निर्वासन मन न हो जब तक, सच्चा सुख न जाने। जिसका चित्त होय निर्वासन, वही सुख पहिचाने ॥ २०६६७६ भोपाल रास
-
नयण लघाड़ी जाम विलोके आगले हो लाल, विलाके० । देखे उभी आप नयरनी भागलें हो लाल, नयना० ॥ दावा तिहां दखा ते वीण बजावतां हो लाल, ते वाण० । राजकुंवरीना रूप कला गुण गावतां हो लाल, कला० ॥९३॥ चित्त मांडी चिंती रूप करे तां कब हो लाल, करे० । उमड़ शीश निलाड़ वदन जिश्शुं तूंबई हो लाल, वदन० ॥ चूए चूंची आँख दांत सवि खोखला हो लाल, दांत० । वांका लांबा होट रहे ते माकला हो लाल रहे ० ||१४|| चिह्न दिशि बेढुं नाक कान जिम ठीक होलान ! पूंठ ऊँची अति खूंध हिये बहु टेकरा हो लाल, हिये ० ॥ कोट के उर पेट मिली गयां ढूंकड़ा हो लाल, मिली० । ट्रंकी साथल जंघ हाथ पग ट्रॅकड़ा हो लाल, हाथ० ॥ १५ ॥ ठक ठक ठवतो पाय नयर मांहि नीकल्यो हो लाल, नगर० । तेह निहाली लोक खलक जीवा मिल्यो हो लाल, खलक० ॥ जिहां शीखे छे वीण कला तिहाँ आवियो हो लाल, कला० । आव्या राजकुमार मली बोलावियो हो लाल, मली० ॥ १६ ॥ क्या यह कुण्डलपुर है ? :
विमलेश्वर देव हार के अद्भुत गुण प्रगट कर अदृश्य हो गये। फिर कुंवर आनन्द से पलंग पर लेट गए । सवेरा होते उनकी आँख खुली - उन्हें कुण्डलपुर जाना था। अतः वे शीघ्र ही शौचादि से निपट कर श्रीसिद्धचक्र के ध्यान में बैठ गए ।
नगर कोट के एक बड़े द्वार पर एक चौकीदार खड़ा, बीन बजा रहा था । बीन की झंकार सुन कुंवर के कान खड़े हो गये। वे इधर उधर दख चकित हो गये । मैं कहाँ हूँ ? कुंवर चौकीदार ! क्या यह कुण्डलपुर है ? चौकीदार - जी हाँ । हर्ष से कुंवर का हृदय गद्गद हो गया। जय हो ! सिद्धचक्र महा मंत्र की जय हो ! ! उनका मन-मयूर नाचने लगा ।
-