________________
परनारी के नेड में, फसते जान अनजान । जान बूझ कर वो मानो, कहते हैं विषपान || __ हिन्दी अनुवाद सहित * *** * * ** % २०१
रसियाने रसिया मिले, केलवता गुण गोठ । हिये न माये रीझ रस, कहेणी नावे होठ ॥१७॥ परख्या पाखे परणता, भुंच्छ मिले भरतार । जाय जमारो झूरताँ, किश्Y करे किरतार ॥१८॥ तिण करण ते कुंवरी, करे प्रतिज्ञा सार ।
वीणा वादे जीतशे, जे मुज ते भरतार ॥१९॥ गुणसुन्दरी की प्रतिज्ञा :
ब्यापारी-गुणसुन्दरी को बचपन से वीणा की विशेष अभिरुचि है। वह ताल लय स्वरों को साधकर राग, रागिनी बजाने बेठती है, तब ब्रह्मा भी एक नहीं अपने पूरे आठों कान से उसकी वीणा सुनते हैं। सच है, साहित्य, कविता और संगीत कला के रसिक जानकार को ही उस कला का वास्तविक आनन्द आता है। मृखों के सामने गाना, बजाना, कला का अपमान है । गाय के गले में लटकता लक्कड़ सदा खटकता रहता है। गुणसुन्दरी प्रार्थना करती है, कि हे विधाता! मैं अपने अशुभ कर्मवश अनेक असह्य दुःख सहर्ष सह लूंगी; किन्तु तू मुझे एक क्षण भी किसी मूर्ख के पल्ले मत पटकना ।
एक हाथ से ताली नहीं बजती, उसी प्रकार अकेला कलाकार बिना साज-बाज, सत्संग के कर ही क्या सकता है। वह वृक्ष की टूटी डाल के समान चुपचाप सूख कर कांटा बन जायगा। साहित्य और संगीत, कला से अनभिज्ञ मानव जंगली रोझ के समान हैं। रोझ नर शृंगार, करुण, हास्य, रौद्र, वीर आदि नवरस और ताल-लय, ती कोमल शद्ध स्वरों के मर्म को क्या समझे? मगसेलिया पत्थर नदी में सदा कोरा ही रहता है । पंडित लाख समझाये, फिर भी मूर्ख एक से दो नहीं होता । मूखों को क्या पता कि कला किस चिड़ियां का नाम है ! वे व्यर्थ ही जंगली छूटे ढोर के समान इधर-उधर अपनी डेढ़ अक्कल बगार कर, स्वयं मानसिक शांति से हाथ धो, दूसरों को कष्ट देते हैं ।
एक दिन गुणसुन्दरी ने कहा - " सखी ! कलाकार वही है, जिसका एक बार साथ करने पर फिर सदा उसके लिये अपना हृदय छटपटाने लगे। तब तो उसका पाना सार्थक है। कलाकार, कलाकार को पाकर फूला नहीं समाता, वे दोनों आनन्दविभोर हो उठते हैं । समान-मिलन के अनूठे आनन्द का वर्णन शब्दों से नहीं, अनुभव से ही होता है । सखी ! यदि कन्या, किसी को आंखे मूंद कर