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आक्रोश भरी अपनी निंदा, या पर गुण महिमा सुन रीझे । है ज्ञानी यह जो निज महिमा, या पर निंदा
सुन कर रीझे ।। हिन्दी अनुवाद सहित -
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१९९ श्रीमान् विनयविजयजी महाराज कहते हैं कि यह श्रीपाल-रास के तीसरे खण्ड की चौथी ढाल संपूर्ण हुई। श्रीसिद्धचक्र की महिमा अपार है। श्रीपालकुंवर इसी के बल से, सेठ के हाथों से बच कर, अब वे इन्द्र के समान आनन्द से तीनों खियों के साथ थापा नगर में रहते है ।
. दोहा एक दिन रयवाड़ी चड्यो, रमवाने श्रीपाल । साथ बहु त्यां उतर्यो, दीठी ऋद्धि विशाल ||१|| सार्थवाह लई भेट', आव्यो कुंवर पाय । तव तेहने पूछे इस्यु, कुंवर करी सुपसाय ॥२॥ कवण देश थी आवीया, किहां जावा तुम भाव । सार्थवाह तब वीनवे, कर जोड़ी सदभाव ॥३॥
आव्या कांति नयर थी, कंबु दीव उद्देश्य । कुंवर कहे कोईक कहो, अचरिज दीठ विशेष | तेह कहे अचिरज सुणो, नयर एक अभिराम । कोश इहांथी चारसो, कुंडलपुर तस नाम ||५|| मकरकेतु राजा तिहाँ, कपूरतिलका कंत । दीय पुत्र उपर हुई, सुता तास गुणवंत ।।६।। नामे ते गुणसुंदरी, रूपे रंभ समान ।
जगमा जस उपम नहीं, चौसठ कला निधान जा एक व्यापारी :
एक दिन कुंबर बड़े ठाठ से नगर के बाहिर उद्यान में घूमने गए। यहां एक व्यापारी ( सार्थवाह ) ठहरा था, वह सदा एक देश से दूसरे देश में घूम फिर कर अपना धंधा करता था। उसने कुंवर को आते देख, आगे बढ़कर उनका स्वागत किया और उन्हें दूर देश से लाई हुई कई बहुमूल्य अनोखी वस्तुएं भेंट की । कुंवर, स-धन्यवाद व्यापारी का उपहार स्वीकार कर, उसे अपने साथ डेरे पर ले गये ।