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________________ जिसने सब दृषण दूर किये, जो वस्तु तत्त्व अवलोक रहे । उनके गुण पर हो पक्षपात, प्रमोद भावना उसे कहे ।। हिन्दी अनुवाद सहित - AN T १९५ विद्याधर पुत्री कहे रे, सघलो तस विरतंत रे चतुरनर, विद्याधर मुनिवर कह्यो हो लाल । पापी सेटे नाखिया रे, सायर मां अम कंन रे चतुरनर, वखते आज अमे लह्यो हो लाल ॥२०॥ ते सुणतां जब ओलख्यो रे, तव हरख्यो मन राय रे चतुरनर. वुत्र सगी भगिनी तणा लाल । अविचार्यु कीधुं हतुं रे, आव्यो सवि ठाय रे चतुरनर; भोजन मांही घी ढल्यु हो लाल ॥२१॥ झूठ की दौड़ कहां तक ? :-- ___ वसुपाल - प्रधानजी ! आप इसी समय, सेठ के जहाजों का निरीक्षण करियेगा। यदि सचमुच थगीधर की दोनों खियां आई हों, तो आप उन्हें सादर यहां ले आवें 'सच' - झूठ का पता लग जायगा । झूठ की दौड़ कहां तक ? बंदरगाह पर जहाजों के चारों ओर कड़ा पहरा लगा दिया गया । खोज करने पर ज्ञात हुआ कि दो सुन्दरियां अपने पति के वियोग में यावली हो रही हैं । प्रधान के मुंह से, श्रीपालकुवर का नाम सुनते ही उनकी आंखें डय-डबा आई, उन्होंने लज्जा से अपने नेत्र नीचे कर लिये । प्रधान मंत्री उन्हें रत्नजड़ित स्वर्ण की पालखी में बिठा, राजसी ठाट से राजमहल में ले आये। मदनसेना और मदनमंजूषा दोनों खियों के चन्द्र-मुख पर सतीत्व का दिव्य तेज था, वे दूर से ही अपने प्राणनाथ के दर्शन कर गद्गद हो गई। प्रेम की झांकी देख, सम्राट की आंखे खुल गई। हाय ! मैं दिन दहाड़े ठगा गया । कहने वालों ने ठीक ही कहा है कि:-- सवाई छप नहीं सकती, बनावटी ऊसूलों से । खुशबू आ नहीं सकती, कागज के फूलों से ॥ दोनों स्त्रियों के मुंह से विद्याधर मुनि कथित परिचय और धवलसेठ द्वारा श्रीपाल को समुद्र में डबा देने की एक करुण कथा, ज्ञात होते ही वसुपाल को अपनी भूल पर बड़ा पश्चात्ताप हुआ । हाय ! मेरे नयन अपने सगे भाणेज को भी पहिचान न सके । उनकी आंखों से टप.........प मोती टपक पड़े। राजसभा में प्रसन्नता की एक लहर दौड़ गई, वाहरे बाह ! ! हंस भी कहीं छिपा है ? नहीं । “घी दुला भी, तो खिचड़ी में ही ।"
SR No.090471
Book TitleShripalras aur Hindi Vivechan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNyayavijay
PublisherRajendra Jain Bhuvan Palitana
Publication Year
Total Pages397
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size12 MB
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