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दिन कर हमारा खो गया, अब रात्रि का विश्राम है। करवाल लेकर काल अब फिरता यहां सद्दाम है। हिन्दी अनुवाद सहित AKHNAERHITECRETAREER १८९
तो पण वाज न आविये, मन करिये अनुकूल । उद्यमथीं सुख संपजे, उद्यम सुखनुं मूल ॥ १२ ॥ वेरी ने वाध्यो घणो, ए मुज खणशे कंद । प्रथमज हणवा एहने, करवो कोईक फंद ॥ १३ ।। इम चिंतवतो ते गयो, उतारे आवास । पलक एक तस जक नहीं, मुख मूके निसास ॥ १४ ॥
द्वारपाल-सेठजी ! इसकी बड़ी तेज पुण्याई है। यह एक दिन समुद्र-तट पर __ सो रहा था। इसे लाकर हमारे सम्राट ने अपनी बेटी व्याह दीन जात पूछी न पात |
बड़े आदमी हैं, नहीं तो न मालूम क्या हो जाता । सेठ द्वारपाल को धन्यवाद दे मुस्कराते हुए चल पड़े । मार्ग में मन ही मन कहने लगे, हां ! अब तो इसकी चोटी मेरे हाथ में है। बच के जायगा कहां? शत्र को समाप्त कर देना ही ठीक है। इसे मैंने समुद्र में ढकेला फिर भी इसका बाल बांका न हुआ । (कुछ सोच कर ) मेरे मन की मन में रह गई। निराश होने से क्या होमा १ कुछ भी हो, "सफलता की जड़ है उद्यम | अब की बार तो इसे छठी का दूध याद न आ जाए, तो मेरा नाम धवल नहीं । " डेरे पर पहुंच कर सेठ विछोने पर करवटें बदलने लगे ।
तीसरा खण्ड-चौथी ढाल
(तर्ज-भिक्षा ने ममता धका हो लास) इण अवसर एक डूंबनुं रे, आव्यु टोलुं एक रे चतुरनर, उभा औलगड़ी करे हो लाल । तेड़ी महत्तर डूंबने रे, शेठ कहे अविवेक रे चतुस्नर, काज अमारु एक करो हो लाल ॥१॥
जेह जमाई रायनो रे, तेहने कहो तुमे डूंब रे चतुरनर, लाख सोनैया __तुमने आपशुं हो लाल । धाई ने वलगो गले रे, सघलु मली
कुटुंब रे चतु नर, पाड़ घणों अमे मानशुं हो लाल ॥२॥