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पुरुषार्थ में ही अथ' है, हे बन्धुओं यदि स्वास हो । दोहे खड़े आखिलेश है, यदि ईश में विश्वास हो। १८८८ R RISHNAKAR
* षोपाल रास आंखों में अंधेरा :
धवल सेठ जहाजों के लंगर पड़ते ही, एक सोने का थाल, बहुमूल्य वस्त्रालंकारों से सजाकर सम्राट वसुपाल की राजसभा में, थाणा नगर पहुंचे। राजा ने संतुष्ट हो उन्हें अपने पास बैठाया | आपस में बातें होने लगी। स्वागत मंत्री (थगीधर ) श्रीपालकुंवर पान-बीड़े का थाल ले राजसभामें आए । उन्हें देखते ही सेठ का सिर चकराने लगा। बाप....रे बा...प! अरे! यह कौन श्रीपाल? मैंने तो इसे गहरे समुद्र में ढकेल दिया था, फिर भी यह यहाँ कैसे आ पहुंचा ? सेठ कुंवर का तेज सहन न कर सके । उनकी आँखों में अंधेरा छा गया । हृदय जोरों से धड़कने लगा। वे पान-बीडा लेना अस्वीकृत भी तो कैसे कर सकते थे । सेठ ने अपने दिल को जरा कड़ाकर (क्या पता श्रीपाल के समान ही कोई और हो) पान-बीडा ले मुंह में रखा । कुंवर शांत भाव से प्रसन्न मन अपने स्थान पर वापस लौट गए। उनके मन में धवलसेठ के प्रति जरा भी घृणा या विकार न था । वे समझते थे कि "कोई किसी को बना या बिगाड़ नहीं सकता | प्रत्येक घटनाएं अपने शुभाशुभ कर्म के अनुसार ही तो बनती हैं। क्रोध, क्षण में जीवन के आनन्द, श्रम और क्रोडों भवों के तप को नष्ट कर देता है।"
सम्राट वसुपाल घंट बजते ही सभा विसर्जन कर, अपने महल में लौट गये। धवलसेठ बड़ी दुविधा में पड़ गये । " हाय ! यह थगीधर न मालूम कौन है । पहरेदार से पूछना चाहिए ।" आखिर धवलसेठ से न रहा गया, पहरेदार से पूछने पर पता लगा, कि इसकी घटना बड़ी विचित्र है, यदि आप मुनेंगे तो आपको बड़ा आश्चर्य होगा।
वनमा सुतो जागवी, घर आण्यो भली भांत । परणावी निज कुंवरी, पूछी न बात के जात ।। ८॥ शेठ सुणी रौझ्यो घणो, चित्त मां करे विचार । एहने कष्टे पाड़वा, भलु देखाड्युं बार ॥९॥ देई कलंक कुजाति मुं, पाडूं एहनी लाज । राजा हणशे एहने, सहजे सरशे काज ॥ १०॥ जो पण जे जे में कर्या, एह ने दुःख ना हेत । तेते सवि निष्फल थया, मुज अभिलाष समेत ॥११॥