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कितना बढ़ा है बढ़ रहा, फिर पापाचार है। श्रीमंत का अब दीन पर, हाता निरंतर यार है। १८६
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श्रीपाल रास वेश करी नारी तणों रे, आव्यो मयणा पास रे । दृष्टि गई थयो आंधलो रे, कादयो करी उपहास रे ॥ ३॥ जीव० उत्तरिये उत्तर तटे रे, वहाण चलावो वेग रे । पण सन्मुख होय वायरो रे, सेठ करे उद्रेग रे ॥३८॥ जीव० अवर देश जावा तणों रे, कीधो कोड़ी उपाय रे । पण वहाण कोंकण तटे रे, आणी मुक्या वाय रे ॥३९|| जीव० त्रीजे खण्डे इम कही रे, विनये त्रीजी ढाल रे । सिद्धचक्र गुण बोलतां रे, लहिये सुख विशाल रे ॥४०॥ जीव० सेठ की पोल खुल गई :
सेठ ने एक दूती को सिखाकर सतियों के पास भेजी। दूती ने श्रीपाल की दोनों स्त्रियों से घुल-मिल कर उन्हें अनेक प्रलोभन दिये, किन्तु उनके हृदय में यह दृढ़ विश्वास था कि "संसार में खियों के लिये अपने पति से बढ़ कर कोई पदार्थ है नहीं" वे अपने व्रत से न डिगी । इति-बहनो ! " देवी के चक्कर में पड़, यदि आप सेठ की प्रार्थना को ठुकराओगी, तो याद रखो ! जन्म भर पछताना पड़ेगा।"
मदनमंजूषा की आंखें लाल हो गई। उसने दूती को गलगची दे, धक्का मारकर बाहिर निकाल दिया। वह अपने प्राण ले वहाँ से भागती बनी । सेठ दासी की रोती सूरत देख, भांप गये कि आज तो अपना दांव खाली गया | "काम सुधारो अपना, तो अंगे पधारो आप" मैं अभी पहुंचता हूँ ।
सेठ ने विचार किया दूसरों को छकाने में मैं बड़ा निपुण हूँ। वे उसी समय स्त्री वेप धारण कर चल पड़े। जनता उन्हें पहचान न सकी । दैविक हार के प्रभाव से धे अंधे बन लड़-खड़ाने लगे। उन्हें क्या पता कि कहाँ कौन खड़ा है। एक दासी का स्पशे होते ही उनकी पोल खुल गई "प्यारी! अब इस दास को अधिक न तडफाओ। यह धवल तुम्हारे चरणों की रज है ! रज |" धवल नाम सुनते ही, दासी ने डंडे से सेठ की पूजा उतारना शुरू कर दी, तो सेठ वहाँ से भागते ही बने | यह देख कर तमाम दास-दासियाँ खिल-खिला कर हंस पड़े। सेठ की सारी मान-प्रतिष्ठा धृल में मिल गई । फिर तो सेठ मुंह बताने लायक भी न रह गये ।