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________________ हम रत्न से कंकड़ हुए, हम राय थे अब रंक हैं। होकर अहिंसा स्रोत की, झख मर रही भघ पंक है ॥ हिन्दी अनुवाद सहित १८५ ते माटे ए चित्त थीं रे, काड़ी को साल रे | पर लखमी पर नास्ने रे, हवे म पड़शो ख्याल रे ॥ ३१ ॥ जीवपण दुर्बुद्धि सेठनुं रे, चित्त न आव्युं ठाय रे । जइवि कपूरे वासिये रे, लसग दुर्गेध न जाय रे ॥ ३२॥ जीवहैड़ा करने वधामणां रे, अंश न दुःख धरेश रे । जो बच्यो लुं जीवतो रे, तो सवि काज करेश रे ||३३|| जीव. जो मुज भाग्ये एव रे, विघ्न ये विसराल रे । तो मलशे ए सुंदरी रे, समशे विरहनी झाल रे ॥ ३४ ॥ जीव. लंपटता एक अभिशाप है : दैविक चमत्कार देख चारो ओर सनसनी फैल गई । खोटी सलाह दे किसी की घात करने वाले का कभी भला हुआ है ? नहीं। तीनों मित्र - सेठजी ! अब नवजीवन पाकर समय पर संभलना ही ठीक है। हमारा तो आपसे फिर भी यही अनुरोध है, कि आप इस लंपटता को ठुकरा कर अपने जीवन का ढांचा ही बदल दें । 66 सदाचार ही जीवन है । " लंपटता मानव का अभिशाप है । देखो ! कुटिल मित्र को प्रत्यक्ष अपने जीवन से हाथ धोना पड़ा। सेठ लज्जित हो, धरती खुरचने लगे, किन्तु उनका मन नहीं बदला । सच है, लहसुन को मनों कपूर में रखने पर भी उसकी दुर्गंध नहीं जाती, उसी प्रकार दुर्जनों का भी यही स्वभाव है । धवलसेठ को अपने साथी की मृत्यु का जरा भी दुःख न हुआ। वे तो मुस्करा कर अपनी मूछों पर बल दे मिया मिट्ठु बन, कहने लगे- अरे ! मैंने देवी को चमका दे मृत्यु पर विजय पा ली, तो भला ये तीनों मित्र हैं किस गिनती में ? कोई चिंता नहीं, अत्र तो मैं इन दोनों सुन्दरियों को पाऊँगा तभी मुझे शांति होगी । एम चिती दूतीं मुखे रे, कहावे हुं तुम दास रे । नेक नजर करी निरखिये रे, मानो मुज अरदास रे ||३५|| जीव. दती ने काढी परी रे, देई गलहत्थो कंठ रे | तो ही निर्लज्ज लाजो नहीं रे, वलीं थयो उल्लंठ रे ||३६|| जीव.
SR No.090471
Book TitleShripalras aur Hindi Vivechan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNyayavijay
PublisherRajendra Jain Bhuvan Palitana
Publication Year
Total Pages397
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size12 MB
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