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भूले हुए आज हम निज देश के अमान को । विज्ञान को श्रुतज्ञान को स्.दुज्ञान को सम्मान को । १८२ R ASHRECR55
श्रीपाल रास कर दिया । सेठ, स्त्री-पुरुषों के बिखर जाने के बाद अपनी मूछों पर बल देते हुए श्रीपाल की सुन्दर स्त्रियों के डरे की ओर चल पड़े। वे बेचारी बिना जल की मछली सी छटपटा रहीं थीं। स्त्री स्वयं अपने लिये नहीं, किन्तु वह अपने पति और परिवार की भलाई के लिये ही जीवित रहती हैं। चाहे पति निर्धन भिखारी या ठूला लंगड़ा ही क्यों न हो, नारी के लिये तो पति ही देव और परमेश्वर है । सेटने द्वार में प्रवेश करते ही रंग बदला । ( अपनी रोती मूरत बना) हाय ! अत्र कुंबर के बिना मेरा कहीं भी मन ही नहीं लगता है। किन्तु कर्म को क्या कहें ! टूटी की छूटी नहीं । खैर होगा अ आप भी आराम से भरपेट डट के खाओ-पीओ और मौज करो । व्यर्थ ही दिन-रात कुचर की चिंता कर अपने खून का पानी करने से क्या फायदा ? चलो उठो! भोजन करो। भूखे मरने से क्या कुंबर मिल जायगा ? मानव ही ती डट कर संकट का सामना करते हैं। भूखे मरना जंगलीपन हैं। कुंवर तो जहां भी जायंगे वहीं मान संमान पायंगे | वे दोनों स्त्रियां धवलसेठ की शहद लपेटी चिकनी चुपड़ी बातें सुन तुरंत ही भांप गई कि वास्तव में हमारे मुहाग पर अंगारे बरसाने वाला यही कनक-कामिनी लंपट धरल है । यह सेट नहीं शठ हमारा शीयल-धन लूटना चाहता है, हम लुटने के पहले ही अपने प्राणनाथ के साथ ही क्यों न सागरमें समा जाय । सम काले बेहु जणी रे, मन धारी ए वात रे। इण अवसर तिहाँ उपनो रे, अति विसमो उत्पात रे॥१५॥ जीव. हाल कल्लोल सायर थयो रे, वाये उभड़ वाय रे । घोर घना घन गाजियो रे, बिजली चिहदिशि थाय रे ॥ १६ ॥ जीव. कुवा थंभा कड़ कड़े रे, उड़ी जाय सद डोर रे। हाथे हाथ सूझे नहीं रे, थयु अंधारु घोर रे । १७॥ जीव. डम डम डमरू डमकते रे, मुख मुके हुंकार रे । खेत्रपाल तिहां आविया रे, हाथे लई तलवार रे ॥१८|| जीव. वीर बावन्ने परिवर्या रे, हस्थे विविध हथीयार रे । छड़ीदार दोड़े घणां रे, चार चतुर पड़ी हार रे ।।१९।। जीव. बेठी मृग पति चाहने रे, चक्र भमाड़े हाथ रे। चकेसरी पाउ धारिया रे, देव देवी वह साथ रे ॥२०॥ जीव.