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जग की सोरी संपदा, धर्म बिना निरस्सार । लत्रण बिना जैसे लगे, व्यं जन विविध प्रकार ।। १८०%20RREAR
R AHA२ श्रीपाल राम सिर कूटे पीदे हियु रे, मूके महोटी पोक रे । जोव. हाल कल्लोल थयो घणो रे, भेला हुआं घणां लोक रे ।। जो. ॥ २॥ कौतुक जोबाने पड़यो ने, मांचे बहागनी कौर रे । है है देव ! ए शुं थयु रे, त्रुटा जूना दोर रे ।। जी. ॥ ३ ॥ जब बेहु मयणा तणे रे, काने पड़ी ते वात रे । ध्रसक पड़यो तव धासको रे, जाणे वज्रनो घात रे ॥ जी. ॥ ४ ॥ थई अचेतन धरणी ढले रे, करती कौड़ विखास रे | सही सहेली सवि मली रे, नाके जुए निसास रे ।। जी. ॥ ५ ॥ छोट्या चंदन कम कमा रे, कर्या विझाणे वाय रे । चते वल्यु तव आरड़े रे, हैये दुःख न माय रे ॥ जी. ॥ ६ ॥ कांई प्राण पोछा बल्या रे, जो रुठो किरतार रे।। पीयरिया आगल रह्या रे, मुकी गया भरतार रे । जो ॥ ७ ॥ माय बापने परिहरी रे, कीपी जेहनो साथ रे।। फिट हियड़ा फूटे नही रे, विछड्यो ते प्राणनाथ रे ।। जी. ॥ ८॥ ढेंगी नर से सावधान :
ढोंगी नक्कालों ने हजारों स्त्री पुरुषों के गले छुरियाँ फेर दी। दूध में पानी, घी में डालड़ा, सोने में तांबा, आटे में लकड़ी का भृसा, ऊन में सूत, केशर में घास, रंग में शक्कर । चारों ओर लूट पट्टी । “शुद्ध घी" "शुद्ध केसर" “शुद्ध ऊन " आदि भड़कीले शीर्षक, सुन्दर रंग बिरंगे आवरणों (पेकिंगों) में जहा देखो वहां धोखा ही धोखा ।
धवलसेठ ने भी ऐसा नाटक रचा कि जनता उसे देख स्तब्ध हो गई। ढोंगी नर थाप को मार कर हाथ भी न धोए । सेठ को रोते पीटते देख, भय सूचक घंट बजने लगा । जहाज में चारों ओर सन्नाटा छा गया श्रीपालकुंवर के वियोग में हजारों स्त्री-पुरुष आंसू बहाने लगे। किन्तु सेठ को मन ही मन प्रसन्न हो उपर से लोगों को टूटा रस्सा बताकर सिसकने लगे। अरे...रे....रे ! इन रस्सों ने तो मुझे फाँसी ही लगा दी । हाय ! मेरा परम उपकारी, जीवन साथी आज मेरे हाथ से निकल