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देव सेवा फल देन है, जाके जैसे भाव | जैसे मुख कर आरसी देखो सोई दिवाय ।
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श्रीपाल रास
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पडतां सायर मांहि के, नवपद मन घरे रे, के नवपद मन धरे रे । सिद्धचक्र प्रत्यक्ष के, सवि संकट हरे रे, के सवि मंकट हरे रे मगर मत्स्य नी पूंठ के, बेठो थिर थई रे, के वेठो थिर थइ रे । वहाणतणी परे तेह के, पोहोंतो तट जई रे, के पौहोंतो तट जई रे ||१७| औषधी ने महिमां के, जल भय निस्तरे रे, जल भय निस्तरे रे । सिद्धचक्र परभाषे के, खुदा करे रे, के सुर सानिध करे रे ।। त्रिजे खण्डे ढाल ए, पहिली मन धरो रे, ए पहिली मन धरो रे । विनय कहे भवि लोक क, भवसागर तरो रे, के भव सायर तरी रे ॥ १८ ॥ पल में पेले पार:
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एक अद्भुत जल-चर देखने की लालसा से श्रीपालकांवर सेठ के साथ शीघ्र ही मंच पर चढ़ टकटकी लगाकर चारों ओर देखने लगे, किन्तु उन्हें कहीं भी चार पर सोलह आंखे दिखाई न दीं। घवलसेट ने अपना पेट पकड़ कर कहा- कुंवरजी ! मेरे पेट में कुछ गड़बड़ हो रही है, मैं अभी आता हूँ । सेठ को खिसकते देख निर्दय दुष्ट मित्र ने चट से मंच की रस्सियां काट दी । थ...म से कुंवर ओंधे मुंह समुद्र में गिर पड़े । वे “ ॐ सिद्ध...च... क्राय नमः " का स्मरण कर बेसुध हो गये। कुछ समय बाद सागर की शीतल तरंगों के थपेड़े लगने से उनकी आंख खुली। चारों ओर जल ही जल । जहाज और स्त्रियों का पता नहीं। उनका सिर चकराने लगा | उन्हें ज्ञात हुआ कि मुझे एक भीमकाय मगरमच्छ अपनी पीठ पर लाद कर बड़े वेग से आगे बढ़ता चला जा रहा है । अब बचने की आशा नहीं । मानव के हृदय में चंचलता का होना स्वाभाविक है । श्रीपाल कुंवर हृताश न हुए । उन्हें तो अपने इष्ट सिद्धचक्र और अपने आत्मबल पर पूर्ण श्रद्धा, दृढ़ विश्वास था । उनकी अन्तर आत्मा बार-बार पुकार कर उन्हें कह रही थी— श्रीपाल ! इस परीक्षा के समय तू भान न भूलना। क्या होनहार भी कभी टल सकता है ? कदापि नहीं। किसी को दोष देना वृथा है । आघात प्रत्याघात ही तो समता की खरी कसोटी है। वे संकल्प-विकल्प का त्याग कर सिद्धचक्र महामंत्र के स्मरण में लीन हो गये ।
" संशयात्मा विनश्यति" भजन स्मरण में अदृश्य शक्ति, अतुल बल और अद्भुत चमत्कार है, किन्तु चाहिए अटूट श्रद्धा और मनोयोग | श्रीपालकुंवर जल तरणी औषधी और महामंत्र स्मरण के प्रभाव से सहज ही आनन्द से पल में पेले पार हो गए।