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काम क्रोध मद लोभ की, जव ला मन में खान । तब लग पंडित मूर्खा, दोनों एक समान ॥ १६० *** *--*
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२ श्रीपाल रास कुंवरजी ! महापुरुषों को कौन नहीं चाहता है ! संभव है, अनेक पालाएं वरमाला लिये आपकी प्रतीक्षा कर रही होगी, किन्तु हमारी मदनमंजूषा बड़ी भोली-भाली सुकुमारिका है। इसे अब तक कभी धूप-छांह का कटु अनुभव नहीं हुआ है । आप इसे हृदय से भुला न देना।
पुत्री ने कहे वत्स, क्षमा घणी मन आणजो जी। सदा लगी भरतार, देव करीने जाणजो जी ॥३३॥ सासु ससरा जेठ लज्जा विनय म चूकशो जी। परिहरजो परमाद, कुल मरजाद म मूकशी जी ॥३४।। कंत पहेली जाग, जागतां नहीं उंघिये जी । शोक बहिन करी जाण, वचन न तास उल्लंघिये जी ॥३५॥ कंत सयल परिवार, जम्या पछी भोजन करे जी। दास दासी जन दोर, खबर सहुनी चित्त धरी जी ॥३६॥ जिन-पूजा गुरुभक्ति, पतिव्रता व्रत पालजी जी।
शी कहिये तुम सीख, इम श्रम कुल अजवालजी जी ॥३७॥ मदनमंजूषा की विदाई:
रत्नमाला-मदनमंजूषा ! हृदय नहीं चाहता, कि तू एक क्षण भी हमारी आंखों से ओझल हो, किन्तु वास्तव में कन्याओं की शोभा तो ससुराल में ही है। बेटी ! अपने ससुराल में जाकर वहां त्याग, तप और संतोष से लोकप्रिय बनना । तन, मन, धन से देवगुरु की भक्ति और सवेज्ञ दर्शित विशुद्ध धर्म की आराधना कर अपना जन्म सफल करना। सास-ससुर, देवर, जेठ, नणद भोजाई आदि की आज्ञानुसार आचरण और उनकी सेवा सुश्रूषा कर उनकी आशिष लेना ।
सन्नारियों के लिये पति ही परमेश्वर है। पति की आज्ञा के विरुद्ध तू अपना एक पैर भी आगे न बढ़ाना, उनके सोने के बाद सोना, जागृत होने से पूर्व उठना । अपने दासदासियों से अधिक संसर्ग और असद् व्यवहार न करना । पशुओं को यथासमय घास दाना पानी दे, उनकी सार संभाल रखना । परिवार के लोगों को सप्रेम भोजन कराके, भोजन करना। अपनी सौतों से अभिन्न वर्ताव करना । उन्हें अपनी बहिन मान, इर्षा से सदा दूर रहना ! मदनमंजूषा ! अधिक क्या कहूँ, तू स्वयं बुद्धिमान है । ससुराल और अपने मातृकुल की शोभा तुम्हारे आदर्श जीवन पर ही निर्भर है।